कारवाँ पर कविता / रमेश कुमार सोनी
धरती माँ से सुनी
कल एक कहानी
दूध की नदियाँ और
सोने की चिड़िया थी कभी
आँचल रत्नगर्भा और
पानी की अमृतधारा थी यहीं
वृक्षों की ठंडी छाँह और
खट्टे-मीठे फल का स्वाद
परोसती थी वो कभी ।
आज मुझे वो मिली है-
जहरीली हवाओं की दम घोंटू साँस और
अम्लीय वर्षा की चिंता लिए
सीना छलनी हुए
बोरवेल से छिद्रित आँचल का दर्द लिए
पानी की घूँट को तरसती
सीने में ज्वाला धधकाती
ओज़ोन की फटी छतरी ओढ़े
विषैले कचरों का बोझा ढोए
मज़बूर है अपनी ही जैव सम्पदाओं को
नष्ट होता देखने को वाकई
धरा:कौन जाने दर्द तेरा।
सबको अपने दर्द की चिंता है
बदलते मौसम से कोफ़्त है
समस्याएँ सबको पता है
समाधान भी जानते हैं
लेकिन ये प्रकृति के शहंशाह जो ठहरे
धरा की आर्तनाद पुकार
वहाँ तक पहुँचे भी तो कैसे।
धरा जानती है इन्हें
किसी माँ की तरह सुधारना
भूकम्प, सुनामी और बाढ़ के
पुराने तरीके छोड़
अब यह गुस्से से कूकर बनी बैठी है
अपने ही कोप भवन में
लोग वैश्विक चर्चा में मशगूल हैं
इसे कैसे मनाया जाय।
इन सबसे दूर मैं
पेड़ लगाते हुए अकेले
बुला रहा हूँ लौटे हुए परिंदों को
दुलार रहा हूँ अपने
इकोसिस्टम की जैव सम्पदाओं को
इस उम्मीद के साथ कि
एक दिन कारवाँ ज़रूर बनेगा
एक दिन ज़रुर ये नादान लोग
शिकायत नहीं रहने देंगे कि-
धरा:कौन जाने दर्द तेरा।
रमेश कुमार सोनी
कबीर नगर-रायपुर, छत्तीसगढ़
मो.-70493-55476