मैं कौन? मनीभाई नवरत्न की आत्मचिंतन से भरी दार्शनिक हिंदी कविता


मनीभाई नवरत्न की कविता “मैं कौन?” आत्म-पहचान और जीवन के गहन सवालों को उजागर करती है। यह दार्शनिक रचना आपको स्वयं की खोज और शून्यता के सत्य की ओर ले जाती है।

कविता का उद्देश्य

“मैं कौन?” एक गहन दार्शनिक कविता है जो मानव जीवन में आत्म-पहचान के प्रश्न को आध्यात्मिक और चिंतनशील दृष्टिकोण से खोजती है। मनीभाई नवरत्न इस कविता के माध्यम से यह दर्शाते हैं कि व्यक्ति की पहचान समाज, परिवार और बाहरी परिभाषाओं से निर्मित होती है, लेकिन वास्तविक स्वरूप इन सबसे परे, शून्यता और अनाम सत्ता में निहित है। कविता जीवन की क्षणभंगुरता, इच्छाओं और भय से उत्पन्न होने वाले दुख, और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाने वाली आज़ादी पर प्रकाश डालती है। यह पाठकों को गहरे आत्म-मंथन और सत्य की खोज की ओर प्रेरित करती है, उन्हें यह विचार करने के लिए बाध्य करती है कि वास्तव में “मैं” क्या है।


“मैं कौन?”


मनी, तू पल-पल मरता है,
इसीलिए तू कभी पूरी तरह मरता नहीं।
पूरी तरह जीता नहीं।
हर इच्छा, हर डर, हर उम्मीद —
तेरी दीवारों पर नई दरारें छोड़ जाते हैं।
तू भोग रहा है —
क्योंकि तू दुखी है।
तू चाहता है —
क्योंकि तू भीतर से सूना है।
हर सुख की दौड़
दरअसल दर्द की गहराई से उपजी है।
तू बेचैन है —
जबकि तेरा कोई ठोस अस्तित्व नहीं।
तू विचारों की लहर है,
जो कभी शरीर बनती है,
कभी नाम, कभी संबंध।
चलता-फिरता इंसान
हर दिन थोड़ा मर जाता है,”
और पत्थर —
जो कुछ भी नहीं करता —
अमर कहलाता है।
पर तू, मनी —
अमर होने की चाह में
हर क्षण जीने से चूकता है।
तेरे सारे रूप,
तेरे सारे नाम,
तुझे दूसरों से मिले हैं।
माँ ने तुझे नाम दिया,
समाज ने धर्म बताया,
दुनिया ने काम सौंपा।
तू जो “मैं” कहता है —
वो हर संबंध से गूंथा है।
“मैं बेटा हूँ”,
“मैं दोस्त हूँ”,
“मैं अच्छा हूँ”,
“मैं गलत हूँ” —
पर जब सब हटा दिया जाए,
तो क्या बचेगा?
क्या बचेगा तेरे भीतर,
जो तुझसे भी परे है?
मनी! तू जिसे खुद समझता है —
वो सिर्फ़ दूसरों की परछाईं है।
तेरी हर पहचान बाहर से आई है,
स्वयं में कुछ भी नहीं है
जिसे तू थाम सके।
तेरे पकड़ में कुछ नहीं
नहीं तू किसी के पकड़ में।
और यहीं से शुरू होती है आज़ादी।
जब तू खुद को पहचानता है —
एक शून्य के रूप में।
नामरहित,
रूपरहित,
द्वंद्वरहित।
जो बचता है,
वो न मिटता है,
न जन्म लेता है,
वो बस ‘है’।
मर जा, मनी —
उन सभी में जो तू नहीं है।
और जो शेष बचे —
वही सत्य है।
वही तू है।
जिसका कोई नाम नहीं,
फिर भी जो सब नामों में व्याप्त है।

कविता की व्याख्या

“मैं कौन?” एक ऐसी कविता है जो मानव जीवन के सबसे गहरे प्रश्नों में से एक को संबोधित करती है: “मैं कौन हूँ?” यह कविता मनी नामक व्यक्ति को संबोधित करते हुए शुरू होती है, जो एक व्यक्तिगत नाम होने के साथ-साथ सामान्य मानव का प्रतीक भी है। कविता जीवन की क्षणभंगुरता और उसकी विरोधाभासी प्रकृति को उजागर करती है—हम न तो पूरी तरह जीते हैं और न ही पूरी तरह मरते हैं। हर पल हमारी इच्छाएँ, भय और उम्मीदें हमें आकार देती हैं, लेकिन ये सभी हमारी सच्ची पहचान नहीं हैं।
कविता का प्रारंभिक हिस्सा जीवन की बेचैनी और दुख को दर्शाता है, जो इच्छाओं और खालीपन से उत्पन्न होता है। यह बताता है कि हमारी हर सुख की खोज वास्तव में दर्द की गहराई से निकलती है। कविता आगे बढ़ते हुए मानव की पहचान को विचारों की लहर के रूप में प्रस्तुत करती है, जो कभी शरीर, कभी नाम, और कभी संबंधों में बदलती है। यह विचार भारतीय दर्शन, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत और बौद्ध दर्शन से प्रेरित प्रतीत होता है, जहाँ आत्मा की अनित्यता और शून्यता पर जोर दिया जाता है।
कविता का मध्य भाग समाज द्वारा दी गई पहचानों—नाम, धर्म, और भूमिकाओं—को उजागर करता है। यह प्रश्न उठाता है कि जब ये सभी बाहरी परतें हटा दी जाएँ, तो क्या बचता है? यहाँ कविता आत्म-मंथन को प्रेरित करती है, पाठक को अपने सच्चे स्वरूप की खोज के लिए बाध्य करती है। अंत में, कविता शून्यता को आज़ादी का प्रतीक बनाती है। यह कहती है कि जब व्यक्ति अपनी बाहरी पहचानों को त्याग देता है, तो वह अपने शुद्ध, अनाम, और द्वंद्वरहित स्वरूप को पहचान लेता है—जो न जन्म लेता है, न मिटता है, बल्कि केवल “है”।
कविता का अंतिम हिस्सा एक आह्वान है—मनी को उन सभी पहचानों में “मर जाने” के लिए कहा जाता है जो वह नहीं है। यहाँ “मरना” का अर्थ है बाहरी परिभाषाओं और अहंकार से मुक्ति। जो बचता है, वही सत्य है—एक ऐसी सत्ता जो सभी नामों में व्याप्त है, फिर भी किसी नाम से बंधी नहीं है। यह कविता न केवल व्यक्तिगत चिंतन को प्रेरित करती है, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक स्तर पर गहरे प्रश्न उठाती है।