मैं कौन? मनीभाई नवरत्न

“मैं कौन?”

मनी, तू पल-पल मरता है,

इसीलिए तू कभी पूरी तरह मरता नहीं।

पूरी तरह जीता नहीं।

हर इच्छा, हर डर, हर उम्मीद —

तेरी दीवारों पर नई दरारें छोड़ जाते हैं।

तू भोग रहा है — 

क्योंकि तू दुखी है। 

तू चाहता है — 

क्योंकि तू भीतर से सूना है।

हर सुख की दौड़ 

दरअसल दर्द की गहराई से उपजी है।

तू बेचैन है — 

जबकि तेरा कोई ठोस अस्तित्व नहीं। 

तू विचारों की लहर है, 

जो कभी शरीर बनती है,

कभी नाम, कभी संबंध।

चलता-फिरता आदमी 

हर रोज़ थोड़ा मर जाता है, 

और पत्थर — 

जो कुछ भी नहीं करता — 

अमर कहलाता है। 

पर तू, मनी — 

अमर होने की चाह में 

हर क्षण जीने से चूकता है।

तेरे सारे रूप, 

तेरे सारे नाम,

तुझे दूसरों से मिले हैं।

माँ ने तुझे नाम दिया,

समाज ने धर्म बताया,

दुनिया ने काम सौंपा।

तू जो “मैं” कहता है — 

वो हर संबंध से गूंथा है।

“मैं बेटा हूँ”, 

“मैं दोस्त हूँ”, 

“मैं अच्छा हूँ”,

“मैं गलत हूँ” —

पर जब सब हटा दिया जाए,

तो क्या बचेगा? 

क्या बचेगा तेरे भीतर, 

जो तुझसे भी परे है?

मनी! तू जिसे खुद समझता है —

वो सिर्फ़ दूसरों की परछाईं है।

तेरी हर पहचान बाहर से आई है,

स्वयं में कुछ भी नहीं है

जिसे तू थाम सके।

तेरे पकड़ में कुछ नहीं 

नहीं तू किसी के पकड़ में।

और यहीं से शुरू होती है आज़ादी।

जब तू खुद को पहचानता है —

एक शून्य के रूप में। 

नामरहित, 

रूपरहित,

द्वंद्वरहित।

जो बचता है, 

वो न मिटता है, 

न जन्म लेता है, 

वो बस ‘है’।

मर जा, मनी —

 उन सभी में जो तू नहीं है। 

और जो शेष बचे — 

वही सत्य है।

 वही तू है।

 जिसका कोई नाम नहीं,

 फिर भी जो सब नामों में व्याप्त है।