ईश्वर का सौदा – मनीभाई नवरत्न की व्यंग्यात्मक कविता

मनीभाई नवरत्न की कविता “ईश्वर का सौदा” समाज पर व्यंग्य करती है कि कैसे इंसान ने ईश्वर को राजनीति, जात-पांत और व्यापार का साधन बना दिया है। पढ़ें यह विचारोत्तेजक रचना।


ईश्वर अनंत, शाश्वत और सर्वव्यापी है। लेकिन समय के साथ इंसान ने अपनी स्वार्थपूर्ण सोच और आडंबरों में उसे बांधकर छोटा कर दिया है। कवि मनीभाई नवरत्न अपनी कविता “ईश्वर का सौदा” में दिखाते हैं कि कैसे ईश्वर को राजनीति, जाति और व्यापार का हथियार बना दिया गया है।


ईश्वर का सौदा

ईश्वर –
जिसे ऋषियों ने अनंत कहा,
जिसे कवियों ने प्रेम कहा,
जिसे साधकों ने मौन कहा।

हमने उसे बना दिया –
ठेका, ठगी और तमाशा।

नेता ने कहा –
“ईश्वर मेरे पाले में है,
वोट उसी को मिलेगा
जो मेरी मूर्ति के सामने झुकेगा।”
पंडित ने कहा –
“ईश्वर वहीं मिलेगा
जहाँ मेरी थाली बजेगी।”
व्यापारी ने कहा –
“ईश्वर का आशीर्वाद
मेरे प्रसाद में पैक है –
मात्र बीस रुपये किलो।”

वाह री आस्था!
ईश्वर बिक रहा है –
जुलूसों में, नारों में,
झंडों और भगवों में।
ईश्वर का पोस्टर छप रहा है
नेताओं के पीछे,
और वह चुपचाप सह रहा है
अपनी ही नीलामी।

ईश्वर को हमने
धर्म-युद्ध का गोला बना दिया,
जाति का डंडा बना दिया,
राजनीति की कुर्सी का तकिया बना दिया।

और मज़े की बात देखो –
लड़ते हम हैं,
मरते हम हैं,
लूटते हम हैं,
और कहते हैं –
“यह सब ईश्वर की इच्छा है।”

ईश्वर मुस्कराता होगा –
या शायद रोता होगा –
कि जिनको उसने जीवन दिया,
उन्होंने उसे ही सबसे छोटा बना दिया।

सच तो यह है –
ईश्वर अब मंदिर में नहीं,
न मस्जिद में, न गिरजाघर में।
ईश्वर अब
उन भूखे बच्चों की आँखों में छिपा है,
उन किसानों की पीठ में है
जो कर्ज के बोझ से झुक गई है,
उन औरतों की चीख में है
जो दहेज में जलाई जाती हैं।

पर हम अंधे हैं,
हमें चाहिए बस सजावट,
सोने की छत,
राजनीति की शोभा।

ईश्वर से बड़ा
कोई नहीं,
और ईश्वर से छोटा
हमने कोई नहीं बनाया।

 मनीभाई नवरत्न


कविता का संदेश (Meaning of the Poem)

  • ईश्वर अनंत है, लेकिन हमने उसे राजनीति और सत्ता का साधन बना दिया।
  • धार्मिक आस्था का उपयोग अब ठेका, ठगी और तमाशे में बदल चुका है।
  • असली ईश्वर भूखे बच्चों की आँखों में, किसानों की पीठ पर और पीड़ित औरतों की चीख में है।
  • इंसान ने ईश्वर को इतना छोटा कर दिया है कि वह केवल नारों, जुलूसों और प्रसाद की दुकानों तक सीमित हो गया है।

निष्कर्ष (Conclusion)

“ईश्वर का सौदा” हमें आत्ममंथन कराता है कि कहीं हमारी आस्था केवल दिखावा तो नहीं बन गई। असली ईश्वर मंदिरों और मूर्तियों में नहीं, बल्कि सेवा, करुणा और न्याय में है।