मुसाफिर ज़िंदगी का
दु:ख; दमन को भ्रमण करूँ दुनिया
अरे ! सृष्टि में यह दर-दर है।
चलता हूं बनकर मुसाफिर
कण्टकों से मार्ग भर।
कण्टकों से सीखा जीना
दर्द दे जीना सिखाया।
जीकर मरता? मरकर जीता?
जीता ही; या मरता ही?
मदिरापान कर मर जाऊं मैं;
मदिरा पीकर जी उठता।
मदिरा का मैं पान करूं या
पान करे मदिरा मेरा?
कंगाल करे मदिरा मुझको या
मदिरालय कंगाल करूँ मैं?
तीव्र गति यह चलती दुनिया
या स्वयं मैं पंगु हूं?
दुनिया के ‘तम’ में जीता हूं
या तम मुझमें ही जीता?
भ्रांत दुनिया या पथिक ही
भ्रांत हूं मैं इस जग में?
चले बयार मन्थर-मन्थर;
विष लिए? सौरभ लिए?
कवि हृदय कहता है ‘सौरभ’
मैं तो कहता विष धरे।
रूप जो विकराल हों
वृक्ष इसके शत्रु हों;
वृक्ष को ऐसे झकझोरे
जब तक अंतिम श्वांस न ले।
ईश्वर तेरा दास हूं मैं
हुक्म तू दे मैं जान भी दूं।
दानव हों या संन्यासी
तुझको ही पूजे दुनिया।
जीवन जीता दर्द में ये दुनिया
मर जाऊंगा हँस देगी।
-कीर्ति जायसवाल
प्रयागराज