कोंपल पर कविता
फागुन राह निहारे कब से
आओ भँवरे अमराई
पछुआ पवन ताप ले आओ
हृदय शीत हर पुरवाई
कोयल की मृदु तान सुनी तो
वसन वृक्ष भी त्याग रहे
वन्य जीव मन मीत मनाने
आगे पीछे भाग रहे
विरहा देख रही आँगन में
बया युगल की चतुराई।
फागुन………………।।
बहक रहा यौवन प्राकृत का
खड़ी लिए माला चंदन
पतझड़ से अंतस कानन में
मधुमासी सा अभिनंदन
लता चमेली ताक रही पथ
भोली आँखे पथराई।
फागुन…………….।।
कर सोलह शृंगार लुभाने
ऋतु बसंत गहने धारे
प्रीत पोमचे मे यौवन भर
तोड़ रही बंधन सारे
अलि के पंथ झाँकती कलियाँ
फुनगी कोंपल गदराई।
फागुन………………।।
पात बिछावन बिछा धरा अब
गगन पंथ को ताक रही
प्रीत निभाने आए फागुन
विकल लताएँ झाँक रही
पिघल रही हिम विरह दाह से
भूल विगत की निठुराई।
फागुन……………….।।
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✍©
बाबू लाल शर्मा “विज्ञ”
सिकंदरा,दौसा, राजस्थान
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