Author: कविता बहार

  • भावों की बरसात लिखती हूं -रीता प्रधान

    भावों की बरसात लिखती हूं

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    आज मैं खुशियों की एक सौगात लिखती हूं।
    आज में खुशियों की एक सौगात लिखती हूं ।
    मन में भरे भावों की बरसात लिखती हूं ।
    आज मैं खुशियों की एक सौगात लिखती हूं ।
    हरा भरा हो गया जीवन बाबुल का जब मैं अंगना में आई थी ।
    कहती है मुझसे मां मेरी उस वक्त चारों ओर हरियाली छाई थी ।
    किलकारियों से जो गूंजता था घर मेरा मैं वह बात लिखती हूं ।
    मन में भरे भावों की बरसात लिखती हूं ।
    नन्हे नन्हे कदमों से जब मैं यहां वहां पर चलती गिरती थी ।
    मुख की प्रभा जैसे बिजली चमकती ,गिरूं मैं तो बादल गरजती थी।
    बचपन के दिन को संजोए में एक सुंदर सा जज्बात लिखती हूं ।
    मन में भरे भावों की बरसात लिखती हूं ।
    सफर नया अब शुरू हुआ है तैयारी हो रही मेरी विदाई का ।
    अंगना सजा है मेरी डोली से नाद हो रहा शहनाई का।
    मेरी विदाई में मेरे मैया बाबुल की आंखों की बरसात लिखती हूं ।
    आज खुशियों की सौगात लिखती हूं ।
    आज मैं खुशियों की सौगात लिखती हूं।

    रीता प्रधान
    रायगढ़ छत्तीसगढ़

  • मोहब्बत की कविता-कोई मेरी ओर नहीं है

    मोहब्बत की कविता-कोई मेरी ओर नहीं है

    गुलाब

    फंसा इश्क के चक्रव्यूह में मिलता ठौर नहीं है
    सभी विरोधी हुए आज कोई मेरी ओर नहीं है।।

    नही किसी को दोष यहां मैं खुद ही गुनाहगार हूँ.
    प्यार जताने चला बना नफरत का शिलाधार हूँ.

    फलते फूलते उद्यानों की धीमी पड़ी बहार हूं.
    सब दर्दों को छुपा लिया क्या उम्दा कलाकार हूं.

    गम के अंधकार मे क्या नवउदिता भोर नहीं है
    सारे विरोधी हुए आज कोई मेरी ओर नहीं है ।।

    इश्क बहुत बेरहम हुआ दिल तंग हुआ आजमाने में.
    उनमे भरा गुमान बहुत ये पता चला अफसाने में.

    इतना भी कमजोर नही कि डर जाऊं प्यार जताने में.
    अब मैं किससे डरूं हूँ पहले ही बदनाम जमाने में.

    साबित क्यों कर रहे अमन इज्जत का दौर नहीं है.
    सारे विरोधी हुए आज कोई मेरी ओर नहीं है ।।

    मजबूरी मे फंसा समझ कुछ आता नही है मन में.
    दर्द भरा है सीने मे और कंप पड़ गया तन में.

    किस मोड़ पे खड़ी जिन्दगी मेरी वक्त बड़ा उलझन में.
    इम्तिहान पर इम्तिहान मिल रहा हमें क्षण क्षण में.

    थाम रखा है कहर अभी गर्दिश का शोर नहीं है
    सारे विरोधी हुए आज कोई मेरी ओर नहीं है ।।


    रचनाकार-
    आर्यन सिंह यादव

  • प्रकृति से खिलवाड़ का फल – महदीप जंघेल

    प्रकृति से खिलवाड़ का फल – महदीप जंघेल

    प्रकृति से खिलवाड़ का फल -महदीप जंघेल

    प्रकृति से खिलवाड़ का फल - महदीप जंघेल
    हसदेव जंगल


    विधा -कविता
    (विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस)

    बादल बरस रहा नही,
    जल बिन नयन सून।
    प्रकृति से खिलवाड़ का फल,
    रूठ गया मानसून।

    प्रकृति रूठ गई है हमसे,
    ले रही ब्याज और सूत।
    धरती दहक रही बिन जल,
    सब मानवीय करतूत।

    विकास की चाह में हमने,
    न जाने कितने पर्वत ढहाए ?
    जंगल,पर्वत का विनाश करके,
    न जाने कितने सड़क बनाए ?



    अनेको वृक्ष काटे हमने,
    कई पहाड़ को फोड़ डाले।
    सागर,सरिता,धरणी में दिए दखल,
    प्रकृति के सारे नियम तोड़ डाले।

    जीव-जंतु का नित आदर करें,
    तब पर्यावरण संतुलित हो पाएगा।
    गिरि,जल,वन,धरा का मान न हो ,
    तो जग मिट्टी में मिल जायेगा।

    आज प्यासी है धरती,
    कल जलजला जरूर आएगा।
    न सुधरे तो दुष्परिणाम हमे,
    ईश्वर जरूर दिखलायेगा।


    रचनाकार
    महदीप जंघेल,खैरागढ़
    राजनांदगांव(छग)

  • प्रकृति से खिलवाड़/बिगड़ता संतुलन-अशोक शर्मा

    प्रकृति से खिलवाड़/बिगड़ता संतुलन-अशोक शर्मा

    प्रकृति से खिलवाड़/बिगड़ता संतुलन

    प्रकृति से खिलवाड़/बिगड़ता संतुलन-अशोक शर्मा
    हसदेव जंगल

    बिना भेद भाव देखो,
    सबको गले लागती है।
    धूप छाँव वर्षा नमीं,
    सबको ही पहुँचाती है।

    हम जिसकी आगोश में पलते,
    वह है मेरी जीवनदाती।
    सुखमय स्वस्थ जीवन देने की,
    बस एक ही है यह थाती।

    जैसे जैसे नर बुद्धि बढ़ी,
    जनसंख्या होती गयी भारी।
    शहरीकरण के खातिर हमने,
    चला दी वृक्षों पर आरी।

    नदियों को नहीं छोड़े हम,
    गंदे मल भी बहाया।
    मिला रसायन मिट्टी में भी,
    इसको विषाक्त बनाया।

    छेड़ छाड़ प्रकृति को भाई,
    बुद्धिमता खूब दिखाई।
    नहीं रही अब स्वस्थ धरा,
    और जान जोखिम में आई।

    बिगड़ रहा संतुलन सबका,
    चाहे जल हो मृदा कहीं।
    ऋतु मौसम मानवता बिगड़ी,
    शुद्ध वायु अब नहीं रही।

    ऐसे रहे गर कर्म हमारे,
    भौतिकता की होड़ में।
    भटक जाएंगे एक दिन बिल्कुल,
    कदम तम पथ की मोड़ में।

    हर जीव हो स्वस्थ धरा पर,
    दया प्रेम मानवता लिए।
    करो विकास है जरूरी,
    बिना प्रकृति से खिलवाड़ किये।



    ★★★★★★★★★★★
    अशोक शर्मा, कुशीनगर,उ.प्र.
    ★★★★★★★★★★★

  • धरती को सरसा जाओ

    धरती को सरसा जाओ

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह


    कोयल केकी कीर सभी को,
    फिर से अब हरषा जाओ।
    उमड़-घुमड़ कर बरसो मेघा,
    धरती को सरसा जाओ।


    //1//
    कोमल-कोमल पात वृक्ष को,
    फिर से आज सजाएंगे।
    भू में दादुर नभ में खगदल,
    गीत प्रीति के गाएंगे।
    हरित तृणों की ओढ़ चुनरिया,
    धरती रूप संवारेगी।
    कलिया भी भौरे के आगे,
    अपना तन मन हारेगी।
    रिमझिम-रिमझिम ले फुहार का,
    रूप धरा में आ जाओ।
    उमड़-घुमड़ कर बरसो मेघा,
    धरती को सरसा जाओ।


    //2//
    माटी के सौंधी खुशबू से ,
    महके भू से व्योम तलक।
    जीव सभी हर्षित हो जाए,
    मनुज रोम से रोम तलक ।
    पुरवइया के मधुर झकोरें,
    छू जाए अंतर्मन को ।
    भीग-भीग कर इस अमृत में,
    धन्य करें सब जीवन को ।
    मन में छाप अमिट जो छोड़े,
    सुधा वही बरसा जाओ।
    उमड़-घुमड़ कर बरसो मेघा,
    धरती को सरसा जाओ।
    ★★★★★★★★★


    स्वरचित-©®
    डिजेन्द्र कुर्रे”कोहिनूर”
    छत्तीसगढ़,भारत
    मो. 8120587822