होली पर्व पर कुण्डलियाँ ( Holi par Kundaliya) का संकलन हिंदी में रचना आपके समक्ष पेश है . होली रंगों का तथा हँसी-खुशी का त्योहार है। यह भारत का एक प्रमुख और प्रसिद्ध त्योहार है, जो आज विश्वभर में मनाया जाने लगा है।
होली पर्व – कुण्डलियाँ
होली के इस पर्व पर, मेटे सब मतभेद। भूल गिला शिकवा सभी, खूब जताये खेद। खूब जताये खेद, शिकायत रह क्यों पाये। आपस मे रह प्रेम, उसे भूले कब जाये। मदन कहै समझाय,खुशी की भर दे झोली। जीवन हो मद मस्त, प्यार की खेलें होली।।
होली छटा निहारिए, बरस रहा मधु रंग । मंदिर-मस्जिद प्रेम से, खेल रहे मिल संग ।। खेल रहे मिल संग, धर्म की भींत ढही है । अंतस्तल में आज, प्रीत की गंग बही है ।। कहे दीप मतिमंद, रहे यह शुभ रंगोली । लाती जन मन पास, अरे मनभावन होली ।।
-अशोक दीप
होली पर पारम्परिक कथा
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के अहंकार में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।
उड़न सिक्ख मिल्खा सिंह जी, इक राजपूत राठौड़ भए। दौड़ दौड़ कर दुनियां में, दिल से दिल को जोड़ गए।।
वो उस भारत में जन्मे थे, जो आज पाक का हिस्सा है। कहूं विभाजन की क्या मैं, जो इक काला किस्सा है।। सिंह साक्षी थे उसके, जहां मारे कई करोड़ गए…
अपने प्रियजन मरते देखे, अपनी ही आंखों आगे। फिर भारत माँ की गोद चुनी, रिश्ते नाते सब त्यागे।। घर बार छोड़कर यूं भागे, ज्यूं सबसे ही मुंह मोड़ गए…
शरणार्थी शिविर शरण पाई, पर दौड़ रखी उसने जारी। भारतीय सेना हो भर्ती, खेली उसने नई पारी।। ये दर्द समय के दिए हुए, जीवन में सीखें छोड़ गए…
ये वही पाक की भूमि थी, आंखों में वही नज़ारा था। खालिक को हरा खरे सिख ने, मुंह आज तमाचा मारा था।। “फ्लाइंग सिख” तमगा पाया, सब पाकी दिल झंकझौड़ गए…
वो सैकिंड का सौंवां हिस्सा था, जो मिल्खा मान गंवारा था। जहां पाक धरा पर विजय मिली, वहीं रोम ओलंपिक हारा था।। चार्ल्स डिंकेंस से पा शिक्षा, कीर्तिमान कई तोड़ गए…
रजपूती रक्त रगों में था, पंजप्यारी ताकत कदमों में। वतन परस्ती के ज़ज़्बे, रहते थे हरदम सपनों में।। कभी-कभी तो धावक पथ पर, नंगे पैरों दौड़ गए…
पदकों की बरसात हुई, बड़ा मान और सम्मान मिला। मिल्खा ने परचम फहराया, तो पूरा हिंदुस्तान खिला।। जीवन दौड़ हुई पूरी, वो आज तिरंगा ओढ़ गए…
शिवराज सिंह चौहान नांधा, रेवाड़ी (हरियाणा) १८/१९-०६-२०२१