गुरु गोबिन्द सिंह जयंती पर कविता
गुरु गोबिन्द सिंह जी की श्रद्धा, उनकी वीरता और उनके बलिदानों को बयां करती एक कविता।
फूल मिले कभी शूल मिले,
प्रतिकूल, उन्हें हर मार्ग मिले।
फिर भी चलने की ठानी थी,
मुगलों से हार न मानी थी।
नवें गुरु, पिता तेगबहादुर,
माता गुजरी, धन्य हुईं।
गोबिन्द राय ने, जन्म लिया,
माटी बिहार की, धन्य हुई।
नवें वर्ष में, गुरूपद पाकर,
दसम गुरु, निहाल हुए।
तन-मन देकर, देश धर्म की
रक्षा में, वे बहाल हुए।
ज्ञान भक्ति, वैराग्य समर्पण,
देशभक्ति में, निज का अर्पण।
हर हाल में, धर्म बचाए थे,
वे कहाँ किसी से हारे थे।
धर्म की खातिर, खोए पिता को,
माँ ने भी, बलिदान दिया।
पुत्रों को भी, खोकर जिसने,
धर्म को ही, सम्मान दिया।
मन मंदिर हो, कर्म हो पूजा,
बढ़कर सेवा से, धर्म न दूजा।
नव धर्म-ध्वजा, फहराया था,
पाखंड कभी न, भाया था।
महापुत्र वे महापिता वे,
राष्ट्रभक्त समदर्शी थे।
‘पंथ खालसा’ के निर्माता,
अनुपम संत सिपाही थे।
मुगलों संग युद्धों में जो,
न्याय सत्य न, खोते थे।
जिनके, स्वर्ण-नोंक की तीरें,
खाकर दुश्मन, तरते थे।
संत वही, वही योद्धा,
गृहस्थ हुए, सन्यासी भी।
महाकवि वे ‘दसम ग्रंथ’ के,
पूर्ण किए, ‘गुरुग्रंथ’ भी।