Author: कविता बहार

  • बेख़याल – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    kavita

    बेख़याल – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    बेख़याल बेअसर
    किंचित विक्षिप्त
    लग रहा है वो
    चला जा रहा है
    अपनी ही दुनिया में
    लोगों के दिलों में जगाता
    केवल एक ही भाव
    शायद पागल है ये
    सत्य के आईने में
    झाँकने के कोई
    तैयार नहीं
    कोई उसे बड्डा
    पागल कहता है
    तो कोई उसे झुमरू पागल
    की संज्ञा दे आगे बढ़ जाता है
    कभी कभी उसके
    तन पर अधफटे वस्त्रों
    को देख अर्धनग्न
    देख उसके तन को ढंकने
    कहीं न कहीं
    मन में एक कचोट
    का अनुभव कर
    उसे वस्त्राभूषित करने का प्रयास करता है
    कभी कभी वह अचानक ही
    रौद्र हो उठता है
    पत्थर उठा किसी की भी ओर दौड़ता है
    पर पत्थर फैंककर
    मारता नहीं
    कभी अचानक ही
    जोर जोर से
    दहाड़ता है चीखता है
    कभी सिसकता है
    व्यथा के पीछे का सत्य
    सबसे दूर कहीं
    भूतकाल के गर्त में छुपा
    समाज में छुपे अमानवीय भेड़ियों
    का शिकार
    जिसे हम बड्डा पागल
    कह आगे बढ़ जाते हैं
    एक बात और
    कभी कभी तो
    रक्षकों द्वारा ही
    भक्षक बन
    इन चरित्रों का
    निर्माण किया जाता है
    उन्हें पैदा किया जाता है
    हमारा सामाजिक परिवेश
    हमारी क़ानून व्यवस्था,
    न्यायपालिका , प्रशासन में
    कुछ न कुछ तो ऐसा है
    जो शक्ति , धन से संपन्न
    समाज में व्याप्त
    चरित्रों को विशेष महत्त्व देता है
    अर्थहीन समाज में
    कोई जगह न होने पर ऐसे चरित्रों
    का निर्माण होता है
    जिन्हें हम पागल झुमरू कहते हैं
    हमारा दायित्व मानव समाज में
    फैलती असमानता को समाप्त कर
    नैतिकतापूर्ण वातावरण
    का निर्माण करना होगा
    जो इन विक्षिप्त
    किरदारों से
    पट रही धरा को
    इस भयावह त्रासदी से
    बचा सके
    यहाँ न कोई बड्डा हो
    न ही कोई झुमरू
    यहाँ केवल मानव हो
    उसका मानवपूर्ण व्यवहार हो
    शालीनता हो सुन्दरता हो
    संस्कार हों संस्कृति हो
    यही मानव समाज की पुकार हो
    यही मानव समाज की पुकार हो
    यही मानव समाज की पुकार हो

  • वक़्त बेवक्त जिन्दगी- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    घड़ी

    वक़्त बेवक्त जिन्दगी- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    वक़्त बेवक्त जिन्दगी के
    मालिक हो गए हैं हम

    खिसकती , सरकती , सिसकती जिन्दगी के
    मालिक हो गये हैं हम

    ध्यान से हमारा नाता नहीं है
    धन की लालसा से बांध गए हैं हम

    संस्कृति के पालक नहीं रहे हम
    आधुनिकता के बवंडर में खो गए हैं हम

    संस्कारों की बेल के फूल न होकर
    कुविचारों की शरण हो गए हैं हम

    योग की लालसा रही नहीं हमको
    पब और जिम की शरण हो गए हैं हम

    दोस्ती पर विश्वास रहा नहीं हमको
    अकेलेपन के शिकार हो गए हैं हम

    सत्संग की शरण न होकर
    टी वी मोबाइल के पीछे भाग रहे हैं हम

    मोक्ष का विचार तो था मन में
    हर पल मर मरकर जी रहे हैं हम
    वक़्त बेवक्त जिन्दगी के
    मालिक हो गए हैं हम

  • हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    बच्चे मन के सच्चे,बच्चो को कोन पसंद नहीं करता सभी उम्र के लोग कभी न कभी बच्चे ज़रूर थे बच्चो से तो सभी को लगव तो होता ही है चाहे वह पशु हो या मनुष्य सभी को अपना बचपन ययद तो आता ही है आज हम बच्चो पर ही आधारित कविता पढेंगे –

    school
    साक्षरता का अर्थ

    हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    जब दाँत हमारे कच्चे थे

    दिल के तब भी सच्चे थे

    आजादी से रहते थे

    बिन सोचे बातें कहते थे

    हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    सुबह मुर्गे की बांग थी

    सुहावनी वो सांझ थी

    ठंडी बर्फ का गोला था

    वो बचपन कितना भोला था

    हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    इमली की खट्टी गोली थी

    कितनी प्यारी बोली थी

    संग खेल खिलौने झोली थी

    बच्चों की न्यारी टोली थी

    हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    गलियों में दौड़ लगाते थे

    दिन भर शोर मचाते थे

    झट पेड़ों पर चढ़ जाते थे

    ज़िद अपनी ही मनवाते थे

    हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    दिन छोटे से रह जाते थे

    रातें लम्बी हो जाती थीं

    पापा संग घूमने जाते थे

    माँ लोरी गा सुलाती थीं

    हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    ना जिम्मेदारी से भागे थे

    ना सुने किसी के ताने थे

    ना चिंताओं ने घेरा था

    ना अभिलाषाओं का डेरा था

    हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    त्योहारों का रहता मेला था

    मेहमानों का रहता फेरा था

    मन में खुशियों का पहरा था

    फिर बचपन क्यूँ ना ठहरा था

    हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    बचपन में जो बात थी

    वो अब ना रही

    वो दिन ना रहे

    वो रात ना रही

    हम बच्चे थे…………तब अच्छे थे

    प्रिया शर्मा

  • मुश्किल राहें प्यार की -आर्यन सिंह यादव

    मुश्किल राहें प्यार की -आर्यन सिंह यादव

    प्रेम

    सोचता हूँ कि कहूँ ना कहूँ दास्तान ए मोहब्बत की कुछ बुरा मानेंगे तो कुछ साजिशें भी होगी ।

    इश्क के इस सफर में कितनी कयामत है कुछ विरोध होगा तो कुछ सिफारिशें भी होंगी ।।

    वक्त लजीज है कितनी अजीब है ये दुनिया
    सहारा देती नही सितम करने लगती है
    मेरे इश्क की मीनार समाज का भय पाकर बिखरने लगती है.

    हालाँकि कुछ नया नही है इम्तिहान जिन्दगी मे
    फिर भी ये जंग भयंकर है
    इधर किरदार है आशिक का मगर विछुड़ने का डर है.

    आज फिर सैलाब आ रहा है मोहब्बत के समुन्दर मे
    कोई कश्ती ला रहा है कोई डुबाना चाहता है
    किसी से मुलाकात तक नहीँ होती कोई गले लगाना चाहता है.

    लाचार सा निशून्य मैं मंझधार मे अटक गया हूँ
    ना जाने क्यों बेवजह इश्क की राह पर भटक
    गया हूँ.

    अब आंधिया थमेगी नहीं चाहें ववंडर क्यों ना मच जाए
    आर्यन के इतिहास मे नया पृष्ठ ही क्यो ना रच जाए.

    फिर कहूंगा तो बस हार मानूँगा नहीँ
    हमसफर पाकर चैन लूंगा पर युद्घ ठानूगा नही.

    कुदरत फितरत हकीकत क्या करेगी ये जानना बाकी है
    मोहब्बत सच मे विचित्र होती है ये मानना बाकी है ।।

    रचना-
    आर्यन सिंह यादव
    ( लोकप्रिय लेखक एण्ड कलाकार )

  • यह कैसा लोकतंत्र – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार “अंजुम”

    यह कैसा लोकतंत्र – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    यह कैसा लोकतन्त्र
    यह कैसी आजादी
    दिखती नहीं मानवता
    खो रही सामाजिकता

    मानव के चारों ओर
    फैल रही भयावहता
    असफल होता जीवन
    सरकता , सिसकता जीवन

    पनपता अपराध
    करता कुठाराघात
    शाम कहाँ हो पता नहीं
    कल का भरोसा नहीं

    तोड़ता नियमों को
    आदर्शों की धज्जियां उड़ाता
    चारों ओर फैलता अँधेरा
    सोचने मजबूर करता

    यह कैसा लोकतन्त्र
    यह कैसी आजादी

    शिक्षा बन गया है व्यवसाय
    शिक्षक हो गए हैं पेशेवर
    सरकारी अस्पताल हो गए हैं
    दरिद्रों के घर

    यातायात व्यवस्था चरमरा रही
    आये दिन दुर्घटनायें हो रहीं
    रक्षकों पर नहीं रहा विश्वास
    घात लगाए बैठी है ये आस

    राह दिखती नहीं
    मंजिल का पता नहीं
    लोग फिर भी रैंग रहे
    बार – बार कह रहे

    यह कैसा लोकतन्त्र
    यह कैसी आजादी

    लडकियां यहाँ सुरक्षित नहीं
    इस असभ्य समाज में
    फैलती आधुनिकता की गंदगी
    चारों ओर गलियार में

    छोटे कपड़ों ने स्थिति
    और भी भयावह की है
    युवा अपने नियंत्रण में नहीं रहा
    बलात्कार इसकी परिणति हो गयी

    गति पकड़ती अनैतिकता , अमानवता
    असामाजिकता , छूटता भाईचारा
    हर कोई कह रहा

    यह कैसा लोकतन्त्र
    यह कैसी आजादी

    शॉर्टकट हो गया जरूरत
    कल का इंतजार ख़त्म
    डर के बीद जीत , कई बार
    देती जीवन से हार

    ये कैसा मुक्त व्यवहार
    कहीं कोई लगाम नहीं
    ना ही कोई मंजिल
    ना कोई ठिकाना

    कहाँ है जाना
    अंत नहीं अंत नहीं
    दिल बरबस कह उठता

    यह कैसा लोकतन्त्र
    यह कैसी आजादी