Author: कविता बहार

  • तुम तो लूटोगे ही प्यारे,लुटेरों की बस्ती में

    तुम तो लूटोगे ही प्यारे,लुटेरों की बस्ती में

    पुकार रहे हो किससे बंदे
    खुद ही हो रहबर अपना।
    छिप रहे हो कहां कहां पे
    कहीं नहीं है घर अपना ।।

    आबरू की फिक्र है तुझे
    जाएगी कभी जो सस्ती में ।।
    तुम तो लूटोगे ही प्यारे ,
    हुस्न पाई लुटेरों की बस्ती में।।


    तेरी जिद करने को हासिल
    इस जग की सारी दौलतें।
    तुम्हें पता होना चाहिए ये कि
    यही बनेगी सारी आफतें।।

    दुकान सुनी करो तो सही
    जानोगे सब मौकापरस्ती में ।
    तुम तो लूटोगे ही प्यारे ,
    दौलत पाई लुटेरों की बस्ती में।।

    गर तुझमें खुशबू है प्यारे
    महकोगे एक दिन जहां में।
    इत्र की खुशबू उड़ जाएगी
    कर्म की खुशबू रहे समां में ।।

    दूजे करनी को अपना बताके
    रहते हो क्यों झूठी मस्ती में।।
    तुम तो लूटोगे ही प्यारे ,
    शोहरत पाई लुटेरों की बस्ती में।।

    #मनीभाई नवरत्न

  • जीवन – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    जीवन – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    जीवन स्वयं को प्रश्न जाल में
    उलझा पा रहा है

    जीवन स्वयं को एक अनजान
    घुटन में असहाय पा रहा है

    जीवन स्वयं के जीवन के
    बारे में जानने में असफल सा है

    जीवन क्या है इस मकड़जाल को
    समझ सको तो समझो

    जीवन क्या है , इससे बाहर
    निकल सको तो निकलो

    जीवन क्या है , एक मजबूरी है
    या है कोई छलावा

    कोई इसको पा जाता है
    कोई पीछे रह जाता

    जीवन मूल्यों की बिसात है
    जितने चाहे मूल्य निखारो

    जीवन आनंदित हो जाए
    ऐसे नैतिक मूल्य संवारो

    जीवन एक अमूल्य निधि है
    हर – क्षण इसका पुण्य बना लो

    मोक्ष मुक्ति मार्ग जीवन का
    हो सके तो इसे अपना लो

    नाता जोड़ो सुसंकल्पों से
    सुआदर्शों को निधि बना लो

    जीवन विकसित जीवन से हो
    पर जीवन उद्धार करो तुम

    सपना अपना जीवन – जीवन
    पर जीवन भी अपना जीवन

    धरती पर जीवन पुष्पित हो
    जीवन – जीवन खेल करो तुम

    चहुँ ओर आदर्श की पूंजी
    हर पल जीवन विस्तार करो तुम

    जीवन अंत ,पूर्ण विकसित हो
    नए नर्ग निर्मित करो तुम

  • मानव मन- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    मानव मन- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    मानव मन
    एक पंछी की भाँति
    उड़ता दूर गगन में
    कभी ना ठहरे
    एक डाल पर
    रैन बसेरा
    बदल – बदल कर
    बढ़ता जीवन पथ
    चाह उसे
    उन्मुक्त गगन की
    चंचल मन
    स्थिरता ठुकराए
    मन उसका
    विस्तृत – विस्तृत
    चाल भी है
    उसकी मतवाली
    संयमता , आदर्श , अनुशासन
    सभी उसके मन पटल पर
    अमित छाप छोड़ते
    फिर भी
    अस्तित्व की लड़ाई
    कर्मभूमि से
    पलायन न करने का
    उसका स्वभाव
    प्रेरित करता
    लड़ो , जब तक जीवन है
    संघर्ष करो
    एक डाल पर बैठकर
    अपने अस्तित्व को
    यूं न रुलाओ
    जियो और जियो
    कुछ इस तरह
    कि मरें तो
    अफ़सोस न हो
    और जियें कुछ
    इस अंदाज़ में
    कि बार – बार
    हार कर
    उठने का गम न हो
    उन्मुक्त
    इस तरह बढ़ें कि
    राह के पत्थर
    फूल बन बिछ जायें
    उडें कुछ इस तरह
    कि आसमान भी
    साथ – साथ उड़ने को
    मजबूर हो जाए
    आगे बढ़ें
    कुछ इस तरह
    कि तूफान की रफ्तार
    धीमी हो जाए
    आंधियां थम जायें
    मौजों को भी
    राह बदलनी पड़ जाये
    कुछ इस तरह
    अपने मन को
    दृढ़ इच्छा को
    पतवार बना
    रुकना नहीं है मुझको
    मन की अभिलाषा
    मन के अंतर्मन में जन्म लेती
    स्वयं प्रेरणादायिनी विचारों की श्रृंखला
    चीरकर हवाओं का सीना
    बढ़ चलूँगा
    कभी न रुकूंगा

  • बाबू की माया- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    बाबू की माया- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    बाबू की माया
    कोई समझ नहीं पाया

    काइयां जिसकी सख्सियत
    अंतरात्मा से धूर्त
    सारी दुनिया को यह
    समझता महामूर्ख

    बाबू हमारे एकदम निराले
    आँखों पर चढ़ा चश्मा
    कारनामे करते सारे काले
    दूसरों की बढ़ी तनख्वाह से
    इन्हें हमेशा नफरत
    चाहे भरा हो
    इनका खुद का पर्स

    सरसरी इनकी निगाहें
    छोड़ती नहीं कोई आंकड़े
    चश्मे के भीतर की दो आँखों से
    भांप लेते हैं ये बिल का मज़मून
    इनके खुद के नियमों के आगे
    चलता नहीं कोई क़ानून

    अच्छे – अच्छे अफसर मानते हैं
    इनकी शातिर चालों का लोहा
    क्योंकि उनके पास भी नहीं है पढ़ने को
    बाबू चालीसा के अलावा कोई दोहा

    बाबू की बाबूगिरी ने सबको हैं
    नाकों चने चबवाए
    इनकी लाल कलम से यारों
    कोई ना बचने पाए

    बाबू की कारगुजारी
    हर पेन पर है पड़ती भारी
    लाल पेन के आगे भैया
    चलती नहीं कोई कटारी

    पल नित नए तरीके खोजें
    पैसे रोकन की राह खोजें
    फैकें नए पेंतरे नित-दिन
    पास नहीं होते हमारे बिल

    बाबू से जो ना हो अंडरस्टेन्डिंग
    समझो तुम्हारी फाइल पेंडिंग
    पीछे के दरवाजे से तुम
    बाबू के घर में घुस सकते हो

    चाय चढावा देकर भैया
    पूरा बिल पास करा सकते हो
    हमारी जो तुम मानो भैया
    बाबू से पंगा मत लेना
    बड़ी गंदी कौम होती है ये
    इनका ना कोई भाई और ना कोई भैया
    बस इनका जो चल जाए तो
    मिले ना तुमको इक रुपैया

    जानो तुम बाबू की माया को
    देखो मत इनकी काया को
    दिल में इनके जगह बनाओ
    चाय – चढावा खूब चढाओ

    चाहे सामने के दरवाजे से आओ
    या फिर पीछे के दरवाजे से आओ
    बाबू की कौम से भैया
    रहना संभल – संभल के

    हमारी जो मानो तुम भैया
    बाबू से पंगा मत लेना
    इनके दर पर माथा टेको
    थोडा झुक – झुक कर रैंगो
    बाबू की खोची खिच्चड़ माया
    जिससे कोई बच न पाया
    हमरी बात को मन में धारो
    बाबू से ये सब जग हारो

    बाबू से ये सब जग हारो
    बाबू से ये सब जग हारो

  • हिंदी संग्रह कविता-नये समाज के लिए

    नये समाज के लिए


    नये समाज के लिए नया विधान चाहिए।
    असंख्य शीश जब कटे
    स्वदेश-शीश तन सका,
    अपार रक्त-स्वेद से,
    नवीन पंथ बन सका।
    नवीन पंथ पर चलो, न जीर्ण मंद चाल से,
    नयी दिशा, नये कदम, नया प्रयास चाहिए।
    विकास की घड़ी में अब,
    नयी-नयी कलें चलें,
    वणिक स्वनामधन्य हों,
    नयी-नयी, मिलें चलें।
    मगर प्रथम स्वदेश में, सुखी वणिक-समाज से,
    सुखी मजूर चाहिए, सुखी किसान चाहिए।
    विभिन्न धर्म पंथ हैं,
    परन्तु एक ध्येय के।
    विभिन्न कर्मसूत्र हैं,
    परन्तु एक श्रेय के।
    मनुष्यता महान धर्मं , महान कर्म है,
    हमें इसी पुनीत ज्योति का वितान चाहिए।

    हमें न स्वर्ग चाहिए,
    न वज्रदंड चाहिए,
    न कूटनीति चाहिए,
    न स्वर्गखंड चाहिए।
    हमें सुबुद्धि चाहिए, विमल प्रकाश चाहिए,
    विनीत शक्ति चाहिए, पुनीत ज्ञान चाहिए।

    रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’