दादाजी पर कविता
आज सुनाता हूँ मैं मेरे जीवन का वो प्रसंग
जो है मेरे जीवन का एक अद्भुत अमिट अंग॥
हुई कृपा उस ईश्वर की जो मुझे यहाँ पर भेजा है
सौंप दिया उस शख्श को मुझे जिसका मृदुल कलेजा है॥
ईश्वर दे सभी को ऐसा जैसा मेरे भाग्य में सौंप दिया
ना डरता था मैं उनसे ऐसे बस सहज ह्रदय में खौफ दिया॥
उनकी मेहरबानी का मैं कर्ज चुका न पाऊँगा
हर जन्म में उन जैसा मित्र कहाँ से लाऊँगा॥
नहीं मिलता सभी को ऐसा जैसा मैंने पाया मित्र सा
मुझमें सब उडेलना चाहा जो था उ-तम चरित्र सा
ना सानी था; ना सानी है और ना रहेगा फिर कभी ,
कायल हूँ मैं उस स्वभाव का जो था अद्भुत विचित्र सा
पर जब देखता हूँ उनकी छवि मैं अपने सहज स्वप्न में
तब लगता है मुझे; चल रहा कोई स्वर्ग में चलचित्र सा॥
कभी हँसता हूँ कभी रोता हूँ सहज ह्रदय से उनकी याद में
कामना होती है उनके लिए ईश्वर से; मेरी हर फरियाद में
है मनुष्य नश्वर अमरता का पाठ पढता है केवल ,
मैं जानता था ,ना होगा कोई उनके जैसा उनके बाद में॥
स्वभाव था अच्छा व पेशा भी श्रेष्ठ था
जो दे गये मुझको ,वो संदेशा भी श्रेष्ठ था।
ना पेशे से ,ना पैसे से वजूद होता है इंसान का
पर जो दे संदेशा मानवता का वह कृतज्ञ होता है भगवान का।
जिसने महका दिया मेरा मन ; जैसे कोई सुगंधित इत्र था
जिसने सौंप दिया सब कुछ मुझे वो मेरा अद्भुत मित्र था।
ऐसे पावन मित्र का मैं बलिहारी रहूँगा
जन्म _ जन्म तक मैं उनका आभारी रहूँगा।
जिसने दिया सबसे ज्यादा स्नेह; मुझे पूरे परिवार में
सम्भव नहीं ये कर्ज चुका दूँ मैं उनका एक बार में
सब कहतें हैं प्राणी नश्वर होता है संसार में,
मैं बुलाता हूँ उनको कभी , वो आ जाते हैं एक बार में॥
जो कुछ किया मैंने उनके लिए वो कर्तव्य था ,सौगात नहीं
उनका कर्ज चुका दूँ मैं,इतनी मेरी औकात नहीं।
इतना कहा था उन्होंने मुझसे; मानवता का रस चखना सदा
दुआ करता हूँ परमात्मा से उनको खुश रखना सदा।
जब कोई लडता था मुझे वो भाल बनकर आते थे
ना आये कोई फटकार मुझ पर वो ढाल बनकर आते थे
रोक देते थे हाथ वो जो उठता था मुझ पर कभी ,
ना दे सके कोई जवाब जिसका ; ऐसा सवाल बनकर आते थे॥
जितना पढाया उन्होंने मुझे कोई और ना पढा सके
जैसी उभारी छवि मुझ पर ऐसी शूली ना कोई गढा सके।
मेरे लिए तो जैसे कोई फरिस्ता जग में आया था
मैं था परछाई और वो मेरा साया था
ना बुला सके कोई माँ भी अपने पुत्र को इस तरह ,
जैसे उन्होंने मुझे स्वयं के पास बुलाया था॥
नहीं सोचता मैं कि वो नहीं हैं इस जग में
लगता है वो बस रहे मेरी हर रग _रग में।
मैं एक कबूतर हूँ और वो परिंदा हैं
कौन कहता है नहीं; अरे वो अभी भी जग में जिंदा हैं।
सुबह-शाम भगवान में मैं बस उनसे बातें करता हूँ
इस सुन्दर संसार में मैं कुछ इस तरह विचरता हूँ
जो कुछ डाल गये वो घास मुझे अपने श्रेष्ढ चरित्र की,
उसी घास को मैं मूक गाय बनकर चरता हूँ।॥
ना पूँछना उनके बारे में मुझसे कोई सवालात तुम
मेरे सपने में आ जाते हो यूँ ही अकस्मात तुम
दुआ करता हूँ मैं उस ईश्वर से मन ही मन ,
हरदम रखना उनके सिर पर अपना कोमल हाथ तुम ॥
जो मेरी बात पर हमेशा हाँ जी – हाँ जी कहता था
उस श्रेष्ठ मित्र को मैं ‘दादाजी’ कहता था।
वो तो सहज स्वभाव के और कोमल ह्रदय वाले थे
मैं था घोर अंधेरा और वो उजाले थे
मुझसे पहले भी उन्होंने न जाने कितने तारे पाले थे
हूँ कृतज्ञ मैं उनका जो मुझमें वो गुण डाले थे
ना चुका पाऊँगा कर्ज मैं उनका जो है मेरे कंधों पर ,
मैं उनके हाथ का छाला था ; वो मेरे हाथ के छाले थे॥

बहुत सुंदर प्रयास
धन्यवाद सर
आपके आशीष से उन्नति होगी
बढ़िया
धन्यवाद भाई साहब
दादा जी का अद्भुत चित्रण प्रस्तुत करती हुई कविता
उत्तम कृति
बहुत बहुत शुक्रिया