आत्म व्यंग्य पर कविता करती कविता- रेखराम साहू

आत्म व्यंग्य पर कविता

आत्म विज्ञापन अधिक तो,लेखनी कमजोर है,
गीत गूँगे हो रहे हैं,बक रहा बस शोर है ।।

टिमटिमाते बुझ रहे हैं, नेह के दीपक यहाँ।
और नफरत का अँधेरा, छा रहा घनघोर है ।।

रात रोती, चाँद तारे हैं सिसकते भूख में ।
हो गया खामोश चिड़ियों के बिना अब भोर है।।

दंभ का झटका न देना,टूट जाए कब कहाँ।
जिंदगी! नाजुक बहुत ही साँस की ये डोर है।।

बावरी मीरा पुकारे,आज सूली सेज पर।
बाँसुरी,राधा कहाँ,अब खो गया चितचोर है।

दूर से जो था मसीहा,सा रहा लगता हमें।
पास आने से हुआ मालूम आदमखोर है ।।

जिंदगी जद्दोजहद है, जिंदगी जिंदादिली।
चाह सच्ची हो अगर तो, राह भी हर ओर है ।।



—- रेखराम साहू —-

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