इन गुलमोहरों को देखकर

कविता/निमाई प्रधान’क्षितिज’

इन गुलमोहरों को देखकर

दिल के तहखाने में बंद
कुछ ख़्वाहिशें…
आज क्यों अचानक
बुदबुदा रही हैं?
महानदी की…
इन लहरों को देखकर!!

कि ननिहाल याद आता है..
इन गुलमोहरों को देखकर!!

शाही अपना भी रूतबा था
मामाजी के गाँव में!!
बचपन में हम भी..
हुआ करते थे राजकुमार..
सुबहो-शाम घूमा करते थे
नाना की पीठ पर होके सवार..
हमारे हर तोतले लफ्ज़ आदेश..
और हर बात फरमानी थी !
उनका कंधा ही सिंहासन था
और आंगन राजधानी थी !
अपना दरबार तो बैठता था
वहाँ पीपल की छांव में!
शाही अपना भी रूतबा था
मामाजी के गाँव में!!

क्यों बचपन छटपटाता है?
पीपल के…
इन मुंडेरों को देखकर!!

कि ननिहाल याद आता है..
इन गुलमोहरों को देखकर!!

‘क्षितिज’ के पार खिसकती
नन्हीं ढिबरी लिबलिबाती
पहाड़ी की उस चोटी पर..
और चंदा-मामा आ गये हैं
दूधिली-मीठी-रोटी पर…!
हम रोते-हँसते-खिलखिलाते
सब रोटी चट कर जाते थे,
और ‘चंदा मामा आओ न’
कहकर गुनगुनाते थे !!

क्यों नानी के हाथों से
वो खाना याद आता है ?
कबूतरों के..
इन बसेरों को देखकर!!

कि ननिहाल याद आता है..
इन गुलमोहरों को देखकर!!

पगडंडियों से सरकते
सूरजमुखी के खेतों में…
कहीं बचपन खिलखिलाता था !
धूल,धुआँ और कोयले से आगे
एक कांक्रीट की बस्ती में कैद…
आज यौवन तिलमिलाता है ।

दशहरे-दिवाली की छुट्टियों में
क्यों भागता है मन?
शहर की चकाचौंध से दूर
पहाड़ी के पार…
अमराई से झांकते हुए
इन सवेरों को देखकर !!

कि ननिहाल याद आता है..
इन गुलमोहरों को देखकर!!
*-@निमाई प्रधान ‘क्षितिज’*

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *