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मैं भुंइया अंव

मैं भुंइया अंव

बछर- बछर ले पानी पीएव ,
मोर कोरा के सुख
ला भोगेव,
रोवत हे तुंहर महतारी ,
मोर लइका मन अब तो चेतव,
सब के रासा -बासा मोर संग,
मैं जग के सिरजइया अंव।
मैं भुंइया अंव, मै भुंइया अंव।
मोर कोरा मा उपजेव खेलेव,
जिनगी के रद्दा ला गढ़ेव।
तुंहर बर मैं हाँसेव रोएंव
कुटका -कुटका तन ला करेंव।
हिरदे मा पीरा ल भरके—
देवत सुख के छँइहा अंव ।
मैं भुंइया——-
मोर तन हा खंडहर होथे,
रूख राई नदियां हर रोथे।
सुग्घर- सुग्घर मोर काया मा,
परदूसन के कैन्सर होथे।
जागव रे अब मोर लइका मन,
डगमग डोलत नइया अंव।
मैं भुंइया—–‘
मया के तरिया ल झिन
सुखावव,
जघा -जघा मा रुख ला लगावव।
मोर छाती मा तुंहला खेलाएंव,
माटी के करजा ला चुकावव।
मन के मतौना मा झन मातव ,
दाई तुंहर सुमिरइया अंव।
मै भुंइया——
मैं सिराहूं त आगी बरस ही,
जम्मो अन पानी बर तरसही ।
रूख- राई, नदियां बिलमाही,
मनखे ला मनखे खा जाहीं।
आगी- पानी अउ हवा ला
महीच्च तो देवइया अंव ।
मैं भुंइया—-
बइरी -हितवा सब ला दुलारेंव ,
जीव- जंतु ला घलव पोटारेंव।
हाँसत- हाँसत छाती चीर के,
जम्मो बर मैं अन उपजाएंव ।
झन चीरव मोर अंचरा ला,
जीती- मरती लाज रखइया अंव।
मैं भुंइया—-
बाढ़त तुंहर तपनी के कुटना,
मोर टोंटा मा फाँसी के झूलना।
कारखाना मोटर- गाड़ी के धुंगिया,
देखत हव बस पइसा रुपिया।
उबुक -चुबूक मोर जीव हा होगे,
भीतरे- भीतर रोवइया अंव।
मैं भुंइया———
स्वरचित
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़
17-4-2019
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

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