व्यक्तित्व विशेष कविता संग्रह

मन मस्त हुआ तब क्यूँ बोले / कबीरदास

मन मस्त हुआ तब क्यूँ बोले / कबीरदास

स्रोत :

  • पुस्तक : कबीर समग्र (पृष्ठ 767)
  • रचनाकार :कबीर
  • प्रकाशन : हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन प्रा.लि., वाराणसी (2001)

मन मस्त हुआ तब क्यूँ बोले

हीरा पायो गाँठ गठियायो बार-बार बा को क्यूँ खोले

हल्की थी तब चढ़ी तराजू पूरी भई तब क्यूँ तओले

सूरत-कलारी भई मतवारी मदवा पी गई बिन तोले

हंंसा पाए मानसरोवर ताल तलैया क्यूँ डोले

तेरा साहब है घर माँ हीं बाहर नैना क्यूँ खोले

कहैं ‘कबीर’ सुनो भा साधो साहब मिले गए तिल ओले

मन मस्त हो गया तो अब बोलने की क्या ज़रूरत है. जब हीरा मिल गया और उसे गाँठ में बाँध लिया तो बार-बार उसे खोलकर देखने से क्या फ़ाइदा. जब तराज़ू हलकी थी तो उसका पलड़ा ऊपर था. अब तराज़ू भरी हुई है तो तौलना बेकार है. प्रेम की मारी शराब बेचने वाली ऐसी मस्त हुई कि बिना नापे-तौले तालाबों का चक्कर क्यों लगाए. जब तेरा मालिक (साहब) घर ही में है तो बाहर आँखें खोलने से क्या मिलेगा. सुनो भाई साधु, ‘कबीर’ कहते हैं कि मेरा साहब (प्रभु) जो तिल की ओट में छुपा हुआ था मुझे मिल गया है.

(अनुवाद: सरदार जाफ़री)