मानवता की छाती छलनी हुई

मानवता की छाती छलनी हुई

विमल हास से अधर,
नैन वंचित करुणा के जल से।
नहीं निकलती 
पर पीड़ा की नदी
हृदय के तल से।।

सहमा-सहमा घर-आँगन है, 
सहमी धरती,भीत गगन है ।
लगते हैं अब तो 
जन-जन क्यों जाने ?
हमें विकल से ।

स्वार्थ शेष है संबंधों में, 
आडंबर है अनुबंधो में ।
मानवता की छाती छलनी हुई
मनुज के छल से ।

——R.R.Sahu
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

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