नयी सुबह पर कविता

नयी सुबह पर कविता

जिम्मेदारीयों को
कंधो पर बिठाकर
कुछ कुछ जरूरतें पूरी करता
ख्वाहिशो को
आलमारी में बंद करके
गम छुपाकर
चेहरे पर एक खामोश हंसी
लाता ..
सच मे नही है कोई शिकन
मेरे माथे पर..
क्योंकि
बे-हिसाब उम्मीदो से
भरे है जेब मेरे..
और 
अनगिनत ख़्वाब भी
देखे थे पहले कभी..
ओह !
यह क्या ?
दिन निकल गया 
ये सब सोचते सोचते
अंधेरे ने फैला दिया
अपना साम्राज्य फिर से
सच में रात हो गयी
अब कमरे के
किसी कोने मैं बैठकर
सो जाऊँगा मैं..
और
इंतजार रहेगा
फिर से एक
नयी सुबह का
शायद कुछ
बदल जाये 
इस उम्मीद के साथ ।

कवि राहुल सेठ “राही”

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