ओ तरु तात सुन ले

ओ तरु तात सुन ले

ओ!तरु तात!सुन ले
मेरी वयस और तेरी वयस का अंतर चिह्न ले
मैं नव अंकुर,भू से तकता
तेरे साये में पलता
तू समूल धरा के गर्भ में जम चुका।

माना ,तेरी शाखा छूती जलद को
मधुर स्पर्श से पय-नीर पान करती
पर जिस दिन फैलेगी मेरी शाखाएँ
घनों को पार कर पहुँचेगी अनंत तक
और चुनेगी स्वर्णिम दीप-तारक।

माना ,सहस्त्रों पथिक तेरी छाँह में विश्रांति पाये
दे आशीष वर्षों तक रहने का,
पाकर शीतलता
पर जब फैलेगा मेरा क्षेत्र,
ढक लेगा मानो सर्व जग को
उस दिन अनगिनत श्रान्त प्राणी,
लेंगे गहरी निंद्रा छाँह में
लब्ध होगी नई स्फूर्ति
देगें असीस युगों तक रहने का।

माना, तेरे पुष्पों पर भ्रमर करते गुंजार
करते रसपान,पाते त्राण
पर जब तेरे सम होंगे शरीरांग
उस दिन समस्त खगकुल का होगा बसेरा
मेरी हरेक डाल बनेगी,
क्रीड़ास्थल उनका
हर शीत-आतप ,वृष्टि होगा परित्राण
अहं ना कर अपनी दीर्घता का
क्योंकि जिस दिन फैलेगी,
मेरी विपुलता……
आकार तेरा बिखर जाएगा
उस दिन तू अंकुर-सम नजर आएगा।

✍–धर्मेन्द्र कुमार सैनी,बांदीकुई
जिला-दौसा(राजस्थान)

दिवस आधारित कविता