पदपादाकुलक/राधेश्यामी/मत्तसवैया छंद [सम मात्रिक]

पदपादाकुलक/राधेश्यामी/मत्तसवैया छंद [सम मात्रिक] विधान – पदपादाकुलक छंद के एक चरण में 16 मात्रा होती हैं , आदि में द्विकल (2 या 11) अनिवार्य होता है किन्तु त्रिकल (21 या 12 या 111) वर्जित होता है, पहले द्विकल के बाद यदि त्रिकल आता है तो उसके बाद एक और त्रिकल आता है , कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकान्त होते है l

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राधेश्यामी या मत्त सवैया छंद के एक चरण में 32 मात्रा होती है और यह पदपादाकुलक का दो गुना होता है l अन्य लक्षण पूर्ववत हैं l

पदपादाकुलक का उदाहरण :

कविता में हो यदि भाव नहीं,
पढने में आता चाव नहीं l
हो शिल्प भाव का सम्मेलन,
तब काव्य बनेगा मनभावन l
– ओम नीरव

राधेश्यामी/मत्तसवैया का उदाहरण :

दो चरणों के जिस आसन पर, मैं शैशव में शी करता था,
शी-शी के स्वर से संचालित, दो दृग मैं निरखा करता था l
करता विलम्ब देतीं झिड़की, ले-ले मेरे शैशवी नाम,
तेरे उस युग-पद-आसन को, मन बार-बार करता प्रणाम l
– ओम नीरव


विशेष : इस छंद की मापनी को भी इसप्रकार लिखा जाता है –
22 22 22 22
गागा गागा गागा गागा
फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन
राधेश्यामी या मत्तसवैया छंद में यही मापनी दो गुनी समझी जा सकती है l
किन्तु केवल गुरु स्वरों से बनने वाली इसप्रकार की मापनी द्वारा एक से अधिक लय बन सकती है तथा इसमें स्वरक(रुक्न) 121 को 22 मानना पड़ता है जो मापनी की मूल अवधारणा के विरुद्ध है इसलिए यह मापनी मान्य नहीं है , यह मनगढ़ंत मापनी है l फलतः यह छंद मापनीमुक्त ही मानना उचित है l

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