31 अक्टूबर इंदिरा गांधी पुण्यतिथि पर कविता
ये जमीं रो पड़ी
● राजेंद्र राजा
ये जमीं रो पड़ी आसमाँ रो पड़ा ।
भोर होते ही सारा जहाँ रो पड़ा ।।
छोड़कर साथ सबका जुदा जब हुई।
राह चलता हुआ कारवाँ रो पड़ा ।।
यूँ अकारण ही सोते हुए देखकर ।
गाँव, कूँचा, गली हर मकाँ रो पड़ा ।
फूल को यूँ पड़ा देखकर धूल में।
डाल के साथ ही बागबाँ रो पड़ा ।
ओढ़कर जब चलीं वे यहाँ से कफन ।
जो जहाँ पर खड़ा था वहाँ रो पड़ा ।
बालकों को दिलासा क्या देते भला ।
जब वृद्ध स्वयं हर जवाँ रो पड़ा ।।
कौन होगा यतीमों का राजा यहाँ ।
सोचकर ही यह सारा समाँ रो पड़ा ।
लिखते-लिखते गीत अचानक मातम
० राजेंद्र राजा
लिखते-लिखते गीत अचानक मातम गाने लगी लेखनी।
पल भर में ही मौसम बदला रुदन मचाने लगी लेखनी ॥
आज अहिंसा के सीने में फिर हिंसा ने गोली मारी,
धरती काँपी अंबर सहमा दर्द सुनाने लगी लेखनी ॥
सूरज तो निकला था लेकिन चेहरे पर मुसकान नहीं थी,
दिन क्यूँ बदला अँधियारे में, हमें बताने लगी लेखनी ॥
विश्वासों के ऊपर कोई अब कैसे विश्वास करेगा,
अपने ही कुत्तों का काटा जख्म दिखाने लगी लेखनी ॥
जिसने घर को स्वर्ग बनाया द्वार-द्वार खुशियाँ बिखराईं,
मौन देखकर उस देवी को, हमें रुलाने लगी लेखनी ॥
कल क्या होगा इस बगिया का कौन बचाएगा पतझर से ?
आँसू के सागर में डूबी प्रश्न उठाने लगी लेखनी ॥
जो सबका प्यारा होता है उसको ‘मौत’ नहीं आती है,
अमर हुई भारत की बिटिया, धीर बँधाने लगी लेखनी ॥