चोर- चोर मौसेरे भइया
अंधिन के आगे जो रोबैं,बे अपने नैनन कौ खोबैं
चोर -चोर मौसेरे भइया,बे काहू के सगे न होबैं।
कच्ची टूटै आज गाँव मै,ठर्रा केते पियैं लफंगा
पुलिस संग मैं उनके डोलै, उनसे कौन लेयगो पंगा
रोज नदी मै खनन होत है, रेता बजरी चोरी जाबै
रोकै कौन इसै अब बोलौ,रोकन बारो हिस्सा खाबै
खुद फूलन कौ हड़प लेत हैं,औरन कौ बे काँटे बोबैं
चोर- चोर मौसेरे भइया,बे काहू के सगे न होबैं।
सीधे- सादिन की जुरुआँअब,बनी गाँव की हैं भौजाई
पड़ैं दबंगन के चक्कर मै, हाय पुलिस ने मौज मनाई
करै पुलिस जब खेल हियन पै,बनै गरीबन पै बा भारी
ऐंठ दिखाबै लाचारिन पै,अपनी रखै बसूली जारी
बाके करमन को फल बोलौ,भोले- भाले कौं लौं ढोबैं
चोर- चोर मौसेरे भइया,बे काहू के सगे न होबैं।
बनो ग्राम सेवक के साथहि, ग्राम सचिव छोटो अधिकारी
सेवा करनो भूलि गए सब, बातैं करैं हियन पै न्यारी
अच्छे-अच्छिन कौ तड़पाबै, लेखपाल लागत है दइयर
अपनी जेब भरत है एती,आँसू पीबत देखे बइयर
नाय निभाबैं जिम्मेदारी, अफसर हाथ हियन पै धोबैं
चोर- चोर मौसेरे भइया,बे काहू के सगे न होबैं ।
चलैं योजना एती सारी,होत गरीबन की है ख्वारी
बइयरबानी हाथ मलैं अब,मुँह से उनके निकलै गारी
मिलै न रासन उनकौ पूरो,कोटेदार चलाबै मरजी
स्कूलन को माल हड़प के, रौब दिखाबैं बैठे सरजी
नेता जो सत्ता मैं आबैं, खूब चैन से बे तौ सोबैं
चोर -चोर मौसेरे भइया, बे काहू के सगे न होबैं।
रचनाकार- ✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
बरेली (उ० प्र०)
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चोर- चोर मौसेरे भइया – उपमेंद्र सक्सेना
हिंदी का पासा – उपेन्द्र सक्सेना
पलट गया हिंदी का पासा
गीत-उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
हिंदी बनी राजभाषा ही, लेकिन नहीं राष्ट्र की भाषा
क्षेत्रवाद के चक्कर में ही, पूरी हो न सकी अभिलाषा।
पूर्वोत्तर के साथ मिले जब, दक्षिण के भी लोग यहाँ पर
हिंदी का विरोध कर जैसे, जला रहे हों अपना ही घर
हिंदी की सेवा में जिसको, देखा गया यहाँ पर तत्पर
ऐसा हंस तड़पता पाया, मानो झुलस गए उसके पर
कूटनीति से यहाँ बन गयी, अंग्रेजी सम्पर्की भाषा
चतुराई से कुछ लोगों ने, हिंदी की बदली परिभाषा।
हिंदी बनी राजभाषा ही……
आज तीन सौ अड़तालिसवीं, संविधान की ऐसी धारा
जिसमें लागू प्रावधान से, अंग्रेजी को मिला सहारा
कामकाज हो गया प्राधिकृत, अंग्रेजी ने रूप निखारा
वादा था पंद्रह वर्षों का, मिला नहीं अब तक छुटकारा
ठीक नहीं स्थिति हिंदी की, केवल मिलती रही दिलासा
छँटी नहीं क्यों भ्रम की बदली,मन इतना हो गया रुँआसा।
हिंदी बनी राजभाषा ही…….
हिंदी का सरकारी ठेका, मिला जिसे फूला न समाया
जिसको चाहा उसे उठाया, जिसको चाहा उसे गिराया
तत्कालिक सरकारी गलती, प्रश्न यहाँ पर उठकर आया
तिकड़म के ताऊ के कारण, सीधा-सादा उभर न पाया
अंग्रेजी का दौर चला है, पलट गया हिंदी का पासा
जैसे कोई कुँआ खोदता, फिर भी रह जाता हो प्यासा।
हिंदी बनी राज भाषा ही……
सरकारी लोगों में क्यों अब, यहाँ बढ़ी हिंदी से दूरी
अंग्रेजी से मोह बढ़ गया, और ढोंग हो गया जरूरी
कानवेंट में बच्चे पढ़ते, उनकी सब इच्छाएँ पूरी
तड़क-भड़क की इस दुनिया में, हिंदी उनकी रही अधूरी
समझ न आया क्यों हिंदी को, देते लोग यहाँ पर झाँसा
फैला जाल स्वार्थ का इतना, अपनों ने अपनों को फाँसा।
हिंदी बनी राजभाषा ही……
रचनाकार- उपमेंद्र सक्सेना एड०
‘कुमुद- निवास’
बरेली (उ० प्र०)
मोबा० नं०- 98379441 87