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  • सुमित्रानंदन पंत की १० सर्वश्रेष्ठ कवितायेँ

    sumitranandan pant
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    परिवर्तन / सुमित्रानंदन पंत


    (१)
    अहे निष्ठुर परिवर्तन!
    तुम्हारा ही तांडव नर्तन
    विश्व का करुण विवर्तन!
    तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
    निखिल उत्थान, पतन!
    अहे वासुकि सहस्र फन!
    लक्ष्य अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरंतर
    छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !
    शत-शत फेनोच्छ्वासित,स्फीत फुतकार भयंकर
    घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !
    मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पान्तर ,
    अखिल विश्व की विवर
    वक्र कुंडल
    दिग्मंडल !

    (२)
    आज कहां वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
    भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
    ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?
    राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
    स्वर्ग की सुषमा जब साभार
    धरा पर करती थी अभिसार!
    प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
    (स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
    गूंज उठते थे बारंबार,
    सृष्टि के प्रथमोद्गार!
    नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
    ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार!
    अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात,
    कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
    दुरित, दु:ख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
    अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात!


    (३)
    अह दुर्जेय विश्वजित !
    नवाते शत सुरवर नरनाथ
    तुम्हारे इन्द्रासन-तल माथ;
    घूमते शत-शत भाग्य अनाथ,
    सतत रथ के चक्रों के साथ !
    तुम नृशंस से जगती पर चढ़ अनियंत्रित ,
    करते हो संसृति को उत्पीड़न, पद-मर्दित ,
    नग्न नगर कर,भग्न भवन,प्रतिमाएँ खंडित
    हर लेते हों विभव,कला,कौशल चिर संचित !
    आधि,व्याधि,बहुवृष्टि,वात,उत्पात,अमंगल
    वह्नि,बाढ़,भूकम्प –तुम्हारे विपुल सैन्य दल;
    अहे निरंकुश ! पदाघात से जिनके विह्वल
    हिल-इल उठता है टलमल
    पद दलित धरातल !

    (४)
    जगत का अविरत ह्रतकंपन
    तुम्हारा ही भय -सूचन ;
    निखिल पलकों का मौन पतन
    तुम्हारा ही आमंत्रण !
    विपुल वासना विकच विश्व का मानस-शतदल
    छान रहे तुम,कुटिल काल-कृमि-से घुस पल-पल;
    तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण-शस्य-दल
    दलमल देते,वर्षोपल बन, वांछित कृषिफल !
    अये ,सतत ध्वनि स्पंदित जगती का दिग्मंडल
    नैश गगन – सा सकल
    तुम्हारा हीं समाधि स्थल !

    ताज / सुमित्रानंदन पंत

    हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
    जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
    संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन,
    नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?

    मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
    आत्मा का अपमान, प्रेत औ’ छाया से रति!!
    प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को वरण?
    स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण?
    शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानन का
    मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का?

    गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर
    मानव के मोहांध हृदय में किए हुए घर!
    भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
    मृतकों के हैं मृतक, जीवतों का है ईश्वर!

    ग्राम श्री / सुमित्रानंदन पंत

    फैली खेतों में दूर तलक
    मख़मल की कोमल हरियाली,
    लिपटीं जिससे रवि की किरणें
    चाँदी की सी उजली जाली !
    तिनकों के हरे हरे तन पर
    हिल हरित रुधिर है रहा झलक,
    श्यामल भू तल पर झुका हुआ
    नभ का चिर निर्मल नील फलक।

    रोमांचित-सी लगती वसुधा
    आयी जौ गेहूँ में बाली,
    अरहर सनई की सोने की
    किंकिणियाँ हैं शोभाशाली।
    उड़ती भीनी तैलाक्त गन्ध,
    फूली सरसों पीली-पीली,
    लो, हरित धरा से झाँक रही
    नीलम की कलि, तीसी नीली।

    रँग रँग के फूलों में रिलमिल
    हँस रही संखिया मटर खड़ी।
    मख़मली पेटियों सी लटकीं
    छीमियाँ, छिपाए बीज लड़ी।
    फिरती हैं रँग रँग की तितली
    रंग रंग के फूलों पर सुन्दर,
    फूले फिरते हों फूल स्वयं
    उड़ उड़ वृंतों से वृंतों पर।

    अब रजत-स्वर्ण मंजरियों से
    लद गईं आम्र तरु की डाली।
    झर रहे ढाँक, पीपल के दल,
    हो उठी कोकिला मतवाली।
    महके कटहल, मुकुलित जामुन,
    जंगल में झरबेरी झूली।
    फूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,
    आलू, गोभी, बैंगन, मूली।

    पीले मीठे अमरूदों में
    अब लाल लाल चित्तियाँ पड़ीं,
    पक गये सुनहले मधुर बेर,
    अँवली से तरु की डाल जड़ीं।
    लहलह पालक, महमह धनिया,
    लौकी औ’ सेम फली, फैलीं,
    मख़मली टमाटर हुए लाल,
    मिरचों की बड़ी हरी थैली।

    गंजी को मार गया पाला,
    अरहर के फूलों को झुलसा,
    हाँका करती दिन भर बन्दर
    अब मालिन की लड़की तुलसा।
    बालाएँ गजरा काट-काट,
    कुछ कह गुपचुप हँसतीं किन किन,
    चाँदी की सी घंटियाँ तरल
    बजती रहतीं रह रह खिन खिन।

    छायातप के हिलकोरों में
    चौड़ी हरीतिमा लहराती,
    ईखों के खेतों पर सुफ़ेद
    काँसों की झंड़ी फहराती।
    ऊँची अरहर में लुका-छिपी
    खेलतीं युवतियाँ मदमाती,
    चुंबन पा प्रेमी युवकों के
    श्रम से श्लथ जीवन बहलातीं।

    बगिया के छोटे पेड़ों पर
    सुन्दर लगते छोटे छाजन,
    सुंदर, गेहूँ की बालों पर
    मोती के दानों-से हिमकन।
    प्रात: ओझल हो जाता जग,
    भू पर आता ज्यों उतर गगन,
    सुंदर लगते फिर कुहरे से
    उठते-से खेत, बाग़, गृह, वन।

    बालू के साँपों से अंकित
    गंगा की सतरंगी रेती
    सुंदर लगती सरपत छाई
    तट पर तरबूज़ों की खेती।
    अँगुली की कंघी से बगुले
    कलँगी सँवारते हैं कोई,
    तिरते जल में सुरख़ाब, पुलिन पर
    मगरौठी रहती सोई।

    डुबकियाँ लगाते सामुद्रिक,
    धोतीं पीली चोंचें धोबिन,
    उड़ अबालील, टिटहरी, बया,
    चाहा चुगते कर्दम, कृमि, तृन।
    नीले नभ में पीलों के दल
    आतप में धीरे मँडराते,
    रह रह काले, भूरे, सुफ़ेद
    पंखों में रँग आते जाते।

    लटके तरुओं पर विहग नीड़
    वनचर लड़कों को हुए ज्ञात,
    रेखा-छवि विरल टहनियों की
    ठूँठे तरुओं के नग्न गात।
    आँगन में दौड़ रहे पत्ते,
    घूमती भँवर सी शिशिर वात।
    बदली छँटने पर लगती प्रिय
    ऋतुमती धरित्री सद्य स्नात।

    हँसमुख हरियाली हिम-आतप
    सुख से अलसाए-से सोये,
    भीगी अँधियाली में निशि की
    तारक स्वप्नों में-से-खोये,–
    मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम–
    जिस पर नीलम नभ आच्छादन,–
    निरुपम हिमान्त में स्निग्ध शांत
    निज शोभा से हरता जन मन!

    पर्वत प्रदेश में पावस / सुमित्रानंदन पंत

    पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
    पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।

    मेखलाकर पर्वत अपार
    अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
    अवलोक रहा है बार-बार
    नीचे जल में निज महाकार,

    -जिसके चरणों में पला ताल
    दर्पण सा फैला है विशाल!

    गिरि का गौरव गाकर झर-झर
    मद में लनस-नस उत्‍तेजित कर
    मोती की लडि़यों सी सुन्‍दर
    झरते हैं झाग भरे निर्झर!

    गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
    उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर
    है झॉंक रहे नीरव नभ पर
    अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।

    उड़ गया, अचानक लो, भूधर
    फड़का अपार वारिद के पर!
    रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
    है टूट पड़ा भू पर अंबर!

    धँस गए धरा में सभय शाल!
    उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!
    -यों जलद-यान में विचर-विचर
    था इंद्र खेलता इंद्रजाल

    संध्‍या के बाद / सुमित्रानंदन पंत

    सिमटा पंख साँझ की लाली
    जा बैठी तरू अब शिखरों पर
    ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
    झरते चंचल स्‍वर्णिम निझर!
    ज्‍योति स्‍थंभ-सा धँस सरिता में
    सूर्य क्षितीज पर होता ओझल
    बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा
    लगता चितकबरा गंगाजल!
    धूपछाँह के रंग की रेती
    अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
    नील लहरियों में लोरित
    पीला जल रजत जलद से बिंबित!
    सिकता, सलिल, समीर सदा से,
    स्‍नेह पाश में बँधे समुज्‍ज्‍वल,
    अनिल पीघलकर सलि‍ल, सलिल
    ज्‍यों गति द्रव खो बन गया लवोपल
    शंख घट बज गया मंदिर में
    लहरों में होता कंपन,
    दीप शीखा-सा ज्‍वलित कलश
    नभ में उठकर करता निराजन!
    तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
    विधवाएँ जप ध्‍यान में मगन,
    मंथर धारा में बहता
    जिनका अदृश्‍य, गति अंतर-रोदन!
    दूर तमस रेखाओं सी,
    उड़ती पंखों सी-गति चित्रित
    सोन खगों की पाँति
    आर्द्र ध्‍वनि से निरव नभ करती मुखरित!
    स्‍वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
    किरणों की बादल-सी जलकर,
    सनन् तीर-सा जाता नभ में
    ज्‍योतित पंखों कंठों का स्‍वर!
    लौटे खग, गायें घर लौटीं
    लौटे कृषक श्रांत श्‍लथ डग धर
    छिपे गृह में म्‍लान चराचर
    छाया भी हो गई अगोचर,
    लौट पैंठ से व्‍यापारी भी
    जाते घर, उस पार नाव पर,
    ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
    खाली बोरों पर, हुक्‍का भर!
    जोड़ों की सुनी द्वभा में,
    झूल रही निशि छाया छाया गहरी,
    डूब रहे निष्‍प्रभ विषाद में
    खेत, बाग, गृह, तरू, तट लहरी!
    बिरहा गाते गाड़ी वाले,
    भूँक-भूँकर लड़ते कूकर,
    हुआँ-हुआँ करते सियार,
    देते विषण्‍ण निशि बेला को स्‍वर!

    माली की मँड़इ से उठ,
    नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
    मंद पवन में तिरती
    नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
    बत्‍ती जल दुकानों में
    बैठे सब कस्‍बे के व्‍यापारी,
    मौन मंद आभा में
    हिम की ऊँध रही लंबी अधियारी!
    धुआँ अधिक देती है
    टिन की ढबरी, कम करती उजियाली,
    मन से कढ़ अवसाद श्रांति
    आँखों के आगे बुनती जाला!
    छोटी-सी बस्‍ती के भीतर
    लेन-देन के थोथे सपने
    दीपक के मंडल में मिलकर
    मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
    कँप-कँप उठते लौ के संग
    कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
    क्षीण ज्‍योति ने चुपके ज्‍यों
    गोपन मन को दे दी हो भाषा!
    लीन हो गई क्षण में बस्‍ती,
    मिली खपरे के घर आँगन,
    भूल गए लाला अपनी सुधी,
    भूल गया सब ब्‍याज, मूलधन!
    सकूची-सी परचून किराने की ढेरी
    लग रही ही तुच्‍छतर,
    इस निरव प्रदोष में आकुल
    उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
    अनुभव करता लाला का मन,
    छोटी हस्‍ती का सस्‍तापन,
    जाग उठा उसमें मानव,
    औ’ असफल जीवन का उत्‍पीड़न!
    दैन्‍य दुख अपमाल ग्‍लानि
    चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
    बिना आय की क्‍लांति बनी रही
    उसके जीवन की परिभाषा!
    जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
    वह दीन-भर बैठा गद्दी पर
    बात-बात पर झूठ बोलता
    कौड़ी-सी स्‍पर्धा में मर-मर!
    फिर भी क्‍या कुटुंब पलता है?
    रहते स्‍वच्‍छ सुधर सब परिजन?
    बना पा रहा वह पक्‍का घर?
    मन में सुख है? जुटता है धन?
    खिसक गई कंधों में कथड़ी
    ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
    सोच रहा बस्‍ती का बनिया
    घोर विवशता का कारण!
    शहरी बनियों-सा वह भी उठ
    क्‍यों बन जाता नहीं महाजन?
    रोक दिए हैं किसने उसकी
    जीवन उन्‍नती के सब साधन?
    यह क्‍यों संभव नहीं
    व्‍यवस्‍था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
    कर्म और गुण के समान ही
    सकल आय-व्‍याय का हो वितरण?
    घुसे घरौंदे में मि के
    अपनी-अपनी सोच रहे जन,
    क्‍या ऐसा कुछ नहीं,
    फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
    मिलकर जन निर्माण करे जग,
    मिलकर भोग करें जीवन करे जीवन का,
    जन विमुक्‍त हो जन-शोषण से,
    हो समाज अधिकारी धन का?
    दरिद्रता पापों की जननी,
    मिटे जनों के पाप, ताप, भय,
    सुंदर हो अधिवास, वसन, तन,
    पशु पर मानव की हो जय?
    वक्ति नहीं, जग की परिपाटी
    दोषी जन के दु:ख क्‍लेश की
    जन का श्रम जन में बँट जाए,
    प्रजा सुखी हो देश देश की!
    टूट गया वह स्‍वप्‍न वणिक का,
    आई जब बुढि़या बेचारी,
    आध-पाव आटा लेने
    लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
    चीख उठा घुघ्‍घू डालों में
    लोगों ने पट दिए द्वार पर,
    निगल रहा बस्‍ती को धीरे,
    गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!

    कला के प्रति / सुमित्रानंदन पंत

    तुम भाव प्रवण हो।
    जीवन पिय हो, सहनशील सहृदय हो, कोमल मन हो।
    ग्राम तुम्हारा वास रूढ़ियों का गढ़ है चिर जर्जर,
    उच्च वंश मर्यादा केवल स्वर्ण-रत्नप्रभ पिंजर।
    जीर्ण परिस्थितियाँ ये तुम में आज हो रहीं बिम्बित,
    सीमित होती जाती हो तुम, अपने ही में अवसित।
    तुम्हें तुम्हारा मधुर शील कर रहा अजान पराजित,
    वृद्ध हो रही हो तुम प्रतिदिन नहीं हो रही विकसित।

    नारी की सुंदरता पर मैं होता नहीं विमोहित,
    शोभा का ऐश्वर्य मुझे करता अवश्य आनंदित।
    विशद स्त्रीत्व का ही मैं मन में करता हूँ निज पूजन,
    जब आभा देही नारी आह्लाद प्रेम कर वर्षण
    मधुर मानवी की महिमा से भू को करती पावन।
    तुम में सब गुण हैं: तोड़ो अपने भय कल्पित बन्धन,
    जड़ समाज के कर्दम से उठ कर सरोज सी ऊपर,
    अपने अंतर के विकास से जीवन के दल दो भर।
    सत्य नहीं बाहर: नारी का सत्य तुम्हारे भीतर,
    भीतर ही से करो नियंत्रित जीवन को, छोड़ो डर।

    सोनजुही / सुमित्रानंदन पंत

    सोनजुही की बेल नवेली,
    एक वनस्पति वर्ष, हर्ष से खेली, फूली, फैली,
    सोनजुही की बेल नवेली!
    आँगन के बाड़े पर चढ़कर
    दारु खंभ को गलबाँही भर,
    कुहनी टेक कँगूरे पर
    वह मुस्काती अलबेली!
    सोनजुही की बेल छबीली!
    दुबली पतली देह लतर, लोनी लंबाई,
    प्रेम डोर सी सहज सुहाई!
    फूलों के गुच्छों से उभरे अंगों की गोलाई,
    निखरे रंगों की गोराई
    शोभा की सारी सुघराई
    जाने कब भुजगी ने पाई!
    सौरभ के पलने में झूली
    मौन मधुरिमा में निज भूली,
    यह ममता की मधुर लता
    मन के आँगन में छाई!
    सोनजुही की बेल लजीली
    पहिले अब मुस्काई!
    एक टाँग पर उचक खड़ी हो
    मुग्धा वय से अधिक बड़ी हो,
    पैर उठा कृश पिंडुली पर धर,
    घुटना मोड़ , चित्र बन सुन्दर,
    पल्लव देही से मृदु मांसल,
    खिसका धूप छाँह का आँचल
    पंख सीप के खोल पवन में
    वन की हरी परी आँगन में
    उठ अंगूठे के बल ऊपर
    उड़ने को अब छूने अम्बर!
    सोनजुही की बेल हठीली
    लटकी सधी अधर पर!
    झालरदार गरारा पहने
    स्वर्णिम कलियों के सज गहने
    बूटे कढ़ी चुनरी फहरा
    शोभा की लहरी-सी लहरा
    तारों की-सी छाँह सांवली,
    सीधे पग धरती न बावली
    कोमलता के भार से मरी
    अंग भंगिमा भरी, छरहरी!
    उदि्भद जग की-सी निर्झरिणी
    हरित नीर, बहती सी टहनी!
    सोनजुही की बेल,
    चौकड़ी भरती चंचल हिरनी!
    आकांक्षा सी उर से लिपटी,
    प्राणों के रज तम से चिपटी,
    भू यौवन की सी अंगड़ाई,
    मधु स्वप्नों की सी परछाई,
    रीढ़ स्तम्भ का ले अवलंबन
    धरा चेतना करती रोहण
    आ, विकास पथ पर भू जीवन!
    सोनजुही की बेल,
    गंध बन उड़ी, भरा नभ का मन!

    ग्राम देवता / सुमित्रानंदन पंत

    राम राम,
    हे ग्राम देवता, भूति ग्राम !
    तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्णकाम,
    शिर पर शोभित वर छत्र तड़ित स्मित घन श्याम,
    वन पवन मर्मरित-व्यजन, अन्न फल श्री ललाम।

    तुम कोटि बाहु, वर हलधर, वृष वाहन बलिष्ठ,
    मित असन, निर्वसन, क्षीणोदर, चिर सौम्य शिष्ट;
    शिर स्वर्ण शस्य मंजरी मुकुट, गणपति वरिष्ठ,
    वाग्युद्ध वीर, क्षण क्रुद्ध धीर, नित कर्म निष्ठ।

    पिक वयनी मधुऋतु से प्रति वत्सर अभिनंदित,
    नव आम्र मंजरी मलय तुम्हें करता अर्पित।
    प्रावृट्‍ में तव प्रांगण घन गर्जन से हर्षित,
    मरकत कल्पित नव हरित प्ररोहों में पुलकित!

    शशि मुखी शरद करती परिक्रमा कुंद स्मित,
    वेणी में खोंसे काँस, कान में कुँई लसित।
    हिम तुमको करता तुहिन मोतियों से भूषित,
    बहु सोन कोक युग्मों से तव सरि-सर कूजित।

    अभिराम तुम्हारा बाह्य रूप, मोहित कवि मन,
    नभ के नीलम संपुट में तुम मरकत शोभन!
    पर, खोल आज निज अंतःपुर के पट गोपन
    चिर मोह मुक्त कर दिया, देव! तुमने यह जन!

    राम राम,
    हे ग्राम देवता, रूढ़ि धाम!
    तुम स्थिर, परिवर्तन रहित, कल्पवत्‌ एक याम,
    जीवन संघर्षण विरत, प्रगति पथ के विराम,
    शिक्षक तुम, दस वर्षों से मैं सेवक, प्रणाम।

    कवि अल्प, उडुप मति, भव तितीर्षु,–दुस्तर अपार,
    कल्पना पुत्र मैं, भावी द्रष्टा, निराधार,
    सौन्दर्य स्वप्नचर,– नीति दंडधर तुम उदार,
    चिर परम्परा के रक्षक, जन हित मुक्त द्वार।

    दिखलाया तुमने भारतीयता का स्वरूप,
    जन मर्यादा का स्रोत शून्य चिर अंध कूप,
    जग से अबोध, जानता न था मैं छाँह धूप,
    तुम युग युग के जन विश्वासों के जीर्ण स्तूप!

    यह वही अवध! तुलसी की संस्कृति का निवास!
    श्री राम यहीं करते जन मानस में विलास!
    अह, सतयुग के खँडहर का यह दयनीय ह्रास!
    वह अकथनीय मानसिक दैन्य का बना ग्रास!!

    ये श्रीमानों के भवन आज साकेत धाम!
    संयम तप के आदर्श बन गए भोग काम!
    आराधित सत्व यहाँ, पूजित धन, वंश, नाम!
    यह विकसित व्यक्तिवाद की संस्कृति! राम राम!!

    श्री राम रहे सामंत काल के ध्रुव प्रकाश,
    पशुजीवी युग में नव कृषि संस्कृति के विकास;
    कर सके नहीं वे मध्य युगों का तम विनाश,
    जन रहे सनातनता के तब से क्रीत दास!

    पशु-युग में थे गणदेवों के पूजित पशुपति,
    थी रुद्रचरों से कुंठित कृषि युग की उन्नति ।
    श्री राम रुद्र की शिव में कर जन हित परिणति,
    जीवित कर गए अहल्या को, थे सीतापति!

    वाल्मीकि बाद आए श्री व्यास जगत वंदित,
    वह कृषि संस्कृति का चरमोन्नत युग था निश्चित;
    बन गए राम तब कृष्ण, भेद मात्रा का मित,
    वैभव युग की वंशी से कर जन मन मोहित।

    तब से युग युग के हुए चित्रपट परिवर्तित,
    तुलसी ने कृषि मन युग अनुरूप किया निर्मित।
    खोगया सत्य का रूप, रह गया नामामृत,
    जन समाचरित वह सगुण बन गया आराधित!

    गत सक्रिय गुण बन रूढ़ि रीति के जाल गहन
    कृषि प्रमुख देश के लिए होगए जड़ बंधन।
    जन नही, यंत्र जीवनोपाय के अब वाहन,
    संस्कृति के केन्द्र न वर्ग अधिप, जन साधारण!

    उच्छिष्ट युगों का आज सनातनवत्‌ प्रचलित,
    बन गईं चिरंतन रीति नीतियाँ, — स्थितियाँ मृत।
    गत संस्कृतियाँ थी विकसित वर्ग व्यक्ति आश्रित,
    तब वर्ग व्यक्ति गुण, जन समूह गुण अब विकसित।

    अति-मानवीय था निश्चित विकसित व्यक्तिवाद,
    मनुजों में जिसने भरा देव पशु का प्रमाद।
    जन जीवन बना न विशद, रहा वह निराह्लाद,
    विकसित नर नर-अपवाद नही, जन-गुण-विवाद।

    तब था न वाष्प, विद्युत का जग में हुआ उदय,
    ये मनुज यंत्र, युग पुरुष सहस्र हस्त बलमय।
    अब यंत्र मनुज के कर पद बल, सेवक समुदय,
    सामंत मान अब व्यर्थ,– समृद्ध विश्व अतिशय।

    अब मनुष्यता को नैतिकता पर पानी जय,
    गत वर्ग गुणों को जन संस्कृति में होना लय;
    देशों राष्ट्रों को मानव जग बनना निश्चय,
    अंतर जग को फिर लेना वहिर्जगत आश्रय।

    राम राम,
    हे ग्राम्य देवता, यथा नाम ।
    शिक्षक हो तुम, मै शिष्य, तुम्हें सविनय प्रणाम।
    विजया, महुआ, ताड़ी, गाँजा पी सुबह शाम
    तुम समाधिस्थ नित रहो, तुम्हें जग से न काम!

    पंडित, पंडे, ओझा, मुखिया औ’ साधु, संत
    दिखलाते रहते तुम्हें स्वर्ग अपवर्ग पंथ।
    जो था, जो है, जो होगा,–सब लिख गए ग्रंथ,
    विज्ञान ज्ञान से बड़े तुम्हारे मंत्र तंत्र।

    युग युग से जनगण, देव! तुम्हारे पराधीन,
    दारिद्र्य दुःख के कर्दम में कृमि सदृश लीन!
    बहु रोग शोक पीड़ित, विद्या बल बुद्धि हीन,
    तुम राम राज्य के स्वप्न देखते उदासीन!

    जन अमानुषी आदर्शो के तम से कवलित,
    माया उनको जग, मिथ्या जीवन, देह अनित;
    वे चिर निवृत्ति के भोगी,–त्याग विराग विहित,
    निज आचरणों में नरक जीवियों तुल्य पतित!

    वे देव भाव के प्रेमी,–पशुओं से कुत्सित,
    नैतिकता के पोषक,– मनुष्यता से वंचित,
    बहु नारी सेवी,- – पतिव्रता ध्येयी निज हित,
    वैधव्य विधायक,– बहु विवाह वादी निश्चित।

    सामाजिक जीवन के अयोग्य, ममता प्रधान,
    संघर्षण विमुख, अटल उनको विधि का विधान।
    जग से अलिप्त वे, पुनर्जन्म का उन्हें ध्यान,
    मानव स्वभाव के द्रोही, श्वानों के समान।

    राम राम,
    हे ग्राम देव, लो हृदय थाम,
    अब जन स्वातंत्र्य युद्ध की जग में धूम धाम।
    उद्यत जनगण युग क्रांति के लिए बाँध लाम,
    तुम रूढ़ि रीति की खा अफ़ीम, लो चिर विराम!

    यह जन स्वातंत्र्य नही, जनैक्य का वाहक रण,
    यह अर्थ राजनीतिक न, सांस्कृति संघर्षण।
    युग युग की खंड मनुजता, दिशि दिशि के जनगण
    मानवता में मिल रहे,– ऐतिहासिक यह क्षण!

    नव मानवता में जाति वर्ग होंगे सब क्षय,
    राष्ट्रों के युग वृत्तांश परिधि मे जग की लय।
    जन आज अहिंसक, होंगे कल स्नेही, सहृदय,
    हिन्दु, ईसाई, मुसलमान,–मानव निश्चय।

    मानवता अब तक देश काल के थी आश्रित,
    संस्कृतियाँ सकल परिस्थितियों से थीं पीड़ित।
    गत देश काल मानव के बल से आज विजित,
    अब खर्व विगत नैतिकता, मनुष्यता विकसित।

    छायाएँ हैं संस्कृतियाँ, मानव की निश्चित,
    वह केन्द्र, परिस्थितियों के गुण उसमें बिम्बित।
    मानवी चेतना खोल युगों के गुण कवलित
    अब नव संस्कृति के वसनों से होगी भूषित।

    विश्वास धर्म, संस्कृतियाँ, नीति रीतियाँ गत
    जन संघर्षण में होगी ध्वंस, लीन, परिणत।
    बंधन विमुक्त हो मानव आत्मा अप्रतिहत
    नव मानवता का सद्य करेगी युग स्वागत।

    राम राम,
    हे ग्राम देवता, रूढ़िधाम!
    तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्ण काम,
    जड़वत्, परिवर्तन शून्य, कल्प शत एक याम,
    शिक्षक हो तुम, मैं शिष्य, तुम्हें शत शत प्रणाम।

    भारतमाता / सुमित्रानंदन पंत

    भारत माता
    ग्रामवासिनी।
    खेतों में फैला है श्यामल
    धूल भरा मैला सा आँचल,
    गंगा यमुना में आँसू जल,
    मिट्टी कि प्रतिमा
    उदासिनी।

    दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
    अधरों में चिर नीरव रोदन,
    युग युग के तम से विषण्ण मन,
    वह अपने घर में
    प्रवासिनी।

    तीस कोटि संतान नग्न तन,
    अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन,
    मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
    नत मस्तक
    तरु तल निवासिनी!

    स्वर्ण शस्य पर -पदतल लुंठित,
    धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
    क्रन्दन कंपित अधर मौन स्मित,
    राहु ग्रसित
    शरदेन्दु हासिनी।

    चिन्तित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
    नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
    आनन श्री छाया-शशि उपमित,
    ज्ञान मूढ़
    गीता प्रकाशिनी!

    सफल आज उसका तप संयम,
    पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
    हरती जन मन भय, भव तम भ्रम,
    जग जननी
    जीवन विकासिनी।

    नौका-विहार / सुमित्रानंदन पंत

    शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
    अपलक अनंत, नीरव भू-तल!
    सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
    लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
    तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,
    लहरे उर पर कोमल कुंतल।
    गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
    चंचल अंचल-सा नीलांबर!
    साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,
    सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर।

    चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
    हम चले नाव लेकर सत्वर।
    सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,
    लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर।
    मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर
    तिर रही, खोल पालों के पर।
    निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर
    दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर।
    कालाकाँकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन,
    पलकों में वैभव-स्वप्न सघन।

    नौका से उठतीं जल-हिलोर,
    हिल पड़ते नभ के ओर-छोर।
    विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल
    ज्योतित कर नभ का अंतस्तल,
    जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किये अविरल
    फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल।
    सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी-सी जल में कल,
    रुपहरे कचों में ही ओझल।
    लहरों के घूँघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख
    दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक।

    अब पहुँची चपला बीच धार,
    छिप गया चाँदनी का कगार।
    दो बाहों-से दूरस्थ-तीर, धारा का कृश कोमल शरीर
    आलिंगन करने को अधीर।
    अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल, लगती भ्रू-रेखा-सी अराल,
    अपलक-नभ नील-नयन विशाल;
    मा के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,
    ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप;
    वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता, हरने का निज विरह-शोक?
    छाया की कोकी को विलोक?

    पतवार घुमा, अब प्रतनु-भार,
    नौका घूमी विपरीत-धार।
    ड़ाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार,
    बिखराती जल में तार-हार।
    चाँदी के साँपों-सी रलमल, नाँचतीं रश्मियाँ जल में चल
    रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल।
    लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
    फैले फूले जल में फेनिल।
    अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह
    हम बढ़े घाट को सहोत्साह।

    ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार
    उर में आलोकित शत विचार।
    इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
    शाश्वत है गति, शाश्वत संगम।
    शाश्वत नभ का नीला-विकास, शाश्वत शशि का यह रजत-हास,
    शाश्वत लघु-लहरों का विलास।
    हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आर-पार,
    शाश्वत जीवन-नौका-विहार।
    मै भूल गया अस्तित्व-ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण
    करता मुझको अमरत्व-दान।