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तुम फूल नहीं बन सकती

तुम फूल नहीं बन सकती

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कल
तुम गुल थी,
गुलाब थी,
एक हसीन ख्व़ाब थी।
हर कोई
देखना चाहता था तुम्हें !
हर कोई….
छूना चाहता था तुम्हें !!
कल तक
पुरुष ने तुम्हें
केवल कुचों
और नितम्बों के
आकार में देखा..
तुम
केवल वस्तु मात्र थी,
उसके
उत्तुंग-विलास में
छलछलाती
मधु-पात्र थी ।
तुम शाश्वत थी
किंतु
उस समाज में
तुम्हारा कोई अपना
वजुद नहीं था ।
आज
पुरुष के
समानांतर चलने का..
हर पग पर,
हर डग पर
उसके गढ़े हुए
कसौटियों को
तोड़ने का..
तुममें साहस है !
समाज के
हर कटाक्ष का,
बेवज़ह
तुम पर छिटके
लांछनों का
आज…
तुम्हारे पास
प्रत्युत्तर है ।
आज
पुरुष को भाता नहीं
तुम्हारा पौरुष
वह
तुम्हें छू नहीं सकता,
तुम्हारी ही
ख़ुशबू लेकर
तुम्हें
मसल नहीं सकता
इसलिए
इसलिए…
तुम बदमिजाज
बदचलन
बेहया हो!!
आज तुम आग हो !
ख़ुद से गढ़ी…
ख़ुद का ही भाग(भाग्य) हो !
आज तुम आग हो..
कि अपने ज्वाल से
भस्म कर सकती हो
अश्लीलता के
घृणित-कंपित-असहनीय
अस्पष्ट अक्षर!!
आज तुम
सबला हो !
अपने ऊपर उठे
हर कामुक-कुदृष्टि को,
एकांगी…
हर पौरुषीय-सृष्टि को
तुम फेंक सकती हो
किसी अनामित दिशा के
किसी प्राणहीन छोर पर !
आज
तुम ‘तुम’ हो
अपने ही
सरगमों की
ख़ुद तरन्नुम हो !
तुम गढ़ सकती हो
एक नया समाज..
बो सकती हो
करुणा के बीज
सींच सकती हो उन्हें
ममत्व के अश्रु-नीर से
तुम खिला सकती हो
स्नेह के फूल
किंतु तुम फूल नहीं बन सकती !
तुम…
फूल नहीं बन सकती !
तुम्हें फूल नहीं बनना चाहिए !!
-@निमाई प्रधान’क्षितिज’
       रायगढ़,छत्तीसगढ़

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