वर्षा ऋतु पर कविता
आज धरा भी तप्त हुई है।
हृदय से शोले निकल पड़े हैं।।
कण-कण अब करे पुकार ।
आ जाओ वर्षा एक बार।।
प्यास अब उमड़ चुकी है ।
जिंदगी को बेतरतीब कर विक्षिप्त पड़ा है।।
तुम पहली बूंद बन कर आ जाना ।
तुम वर्षा हो आकर बरस जाना ।।
निर्जीव सदृश यह काया है, रूह बनकर समा जाना।
तुम वर्षा हो आकर बरस जाना ।
शुष्क पड़े सब नदी नाले ।
पर्वत में पतझड़ का आना।।
यह सब द्योतक है विरह के ।
तुम वर्षा हो आकर बरस जाना ।।©
मिट्टी के घर में, छत से टपकती बूंदों में भी।
टकटकी निगाहों की टिमटिमाती आस हो जाना।।
सोंधी – सोंधी खुशबू से महका जाना।
तुम वर्षा हो आकर बरस जाना ।।
प्रेमिका की व्याकुलतम बिरह पर,
प्रेमी के स्पर्श से बिजली गिर जाना ।
काली घनेरी केसों-से बादल का छा जाना।।
बिजली गिरा कर जहाँ नजरों से शर्मसार हो जाना।
तुम वर्षा हो आकर बरस जाना।। ©
मस्त मगन में नाचे मोर।
टर्र-टर्र मेंढक मचाए शोर।।
खेतों में फसलों का लहराना।
तुम वर्षा हो आकर बरस जाना।।
हृदय विशाल बनाकर तुम,
आ कर कभी बरस जाना।
घिरे बादल घने से और बरसात हो जाना ।।
“माण्ड” नदी के चरणों को छूते आना।
प्रकृति के बंधन तोड़कर, प्रेम सुधा रस बरसाना।।
तुम वर्षा हो, वर्षा रानी,आकर कभी बरस जाना।।©®
✍ हरीश पटेल
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
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