विरह पर दोहे -बाबू लाल शर्मा

विरह पर दोहे

सूरज उत्तर पथ चले,शीत कोप हो अंत।
पात पके पीले पड़े, आया मान बसंत।।

फसल सुनहरी हो रही, उपजे कीट अनंत।
नव पल्लव सौगात से,स्वागत प्रीत बसंत।।

बाट निहारे नित्य ही, अब तो आवै कंत।
कोयल सी कूजे निशा,ज्यों ऋतुराज बसंत।।

वस्त्र हीन तरुवर खड़े,जैसे तपसी संत।
कामदेव सर बींधते,मन मदमस्त बसंत।।

मौसम ले अंगड़ाइयाँ,दामिनि गूँजि दिगंत।
मेघा तो बरसे कहीं, विरहा सोच बसंत।।

नव कलियाँ खिलने लगे,आवे भ्रमर तुरंत।
विरहन मन बेचैन है, आओ पिया बसंत।।

सिया सलौने गात है, मारे चोंच जयंत।
राम बनो रक्षा करो,प्रीतम काल बसंत।।

प्रीतम पाती प्रेमरस, अक्षर जोड़ अजंत।
विरहा लिखती लेखनी,आओ कंत बसंत।।

प्रेम पत्रिका लिख रही, पढ़ लेना श्रीमंत।
भाव समझ आना पिया,चाहूँ मेल बसंत।।

जैसी उपजे सो लिखी, प्रत्यय संधि सुबन्त।
पिया मिलन की आस में,भटके भाव बसंत।।

परदेशी पंछी यहाँ, करे केलि हेमंत।
मन मेरा भी बावरा, चाहे मिलन बसंत।।

कुरजाँ ,सारस, देखती, कोयल पीव रटन्त।
मन मेरा बिलखे पिया, चुभते तीर बसन्त।।

बौराए वन बाग है, अमराई जीवंत।
सूनी सेज निहारती ,बैरिन रात बसंत।।

मादकता चहूँ ओर है, कैसे बनू सुमंत।
पिया बिना बेचैन मन, कैसे कटे बसंत।।

काम देव बिन सैन्य ही, करे करोड़ो हंत।
फिर भी मन माने नहीं, स्वागत करे बसंत।।

मैना कोयल बावरे, मोर हुए सामंत।
तितली भँवरे मद भरे, गाते राग बसंत।।

कविमन लिखता बावरा,शारद सुमिर पदंत।
प्राकृत में जो देखते,लिखती कलम बसन्त।।

शारद सुत कविता गढ़े, लिखते गीत गढंत।
मन विचलित ठहरे नहीं, रमता फाग बसंत।।

गरल सने सर काम के,व्यापे संत असंत।
दोहे लिख ऋतु राज के,कैसे बचूँ बसंत।।

कामदेव का राज है, भले बुद्धि गजदंत।
पलकों में पिय छवि बसे,नैन न चैन बसंत।।

ऋतु राजा की शान में,मदन भटकते पंत।
फाग राग ढप चंग से, सजते गीत बसंत।।

मन मृग तृष्णा रोकती,अक्षर लगा हलन्त्।
आँसू रोकूँ नयन के, आजा पिया बसंत।।

चाहूँ प्रीतम कुशलता,अर्ज करूँ भगवंत।
भादौ से दर्शन नहीं, अब तो मिले बसंत।।

ईश्वर से अरदास है, प्रीतम हो यशवंत।
नित उठ मैं पूजा करूँ, देखूँ बाट बसंत।।

फागुन में साजन मिले,खुशियाँ हो अत्यंत।
होली मने गुलाल से, गाऊँ फाग बसंत।।

मैं परछाई आपकी,आप पिया कुलवंत।
विरहा मन माने नहीं, करता याद बसंत।।

शकुन्तला को याद कर,याद करूँ दुष्यंत।
भूल कहीं जाना नहीं, उमड़े प्रेम बसंत।।

रामायण गीता पढ़ी,और पढ़े सद् ग्रन्थ।
ढाई अक्षर प्रेम के, मिलते माह बसंत।।

प्रीतम हो परदेश में, आवे कौन सुपंथ।
पथ पूजन कर आरती,मै तैयार बसंत।।

नारी के सम्मान के, मुद्दे उठे ज्वलंत।
कंत बिना क्या मान हो,दे संदेश बसंत।।

प्रीतम चाहूँ प्रीत मै, सात जनम पर्यन्त।
नेह सने दोहे लिखूँ ,साजन चाह बसंत।।

बाबू लाल शर्मा, “बौहरा”
सिकंदरा,दौसा,राजस्थान

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