ज़िंदगी की राह/ निमाई प्रधान’क्षितिज

ज़िंदगी की राह/ निमाई प्रधान’क्षितिज
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ज़िंदगी की राह..
जो तुम चल पड़े हो !
देखना..झंझावतों की
भीड़ होगी ,
आशियां टूटेगा..
हरदम..हर गली में..
फिर बसेरे की ज़रूरत-
नीड़ होगी !!

ज़िंदगी की राह..
जो तुम चल पड़े हो!!

संसृति का है नियम..
ओ रे राही!
चलते रहना है..
आगे बढ़ते रहना ,
अपने आगे आये-
हर रुकावटों को ..
मोड़ दो..
या फिर-
मुड़ के बह निकलना !!

ज़िंदगी की राह..
जो तुम चल पड़े हो!!

स्वयं से ऊपर उठ गया जो..
है मनु वो..!
खुद में सिमटा रह गया..
इंसां नहीं है !!
समष्टि-हित गर..
कर न पाये कुछ तो..
ये इंसानियत की किंचित् भी
निशां नहीं है!!

ज़िंदगी की राह..
जो तुम चल पड़े हो!!

*-@निमाई प्रधान’क्षितिज’*
     रायगढ़,छत्तीसगढ़
   मोबाइल नं.7804048925

दिवस आधारित कविता