दीपोत्सव का आत्मप्रकाश
(एक आध्यात्मिक कविता)
हर वर्ष आता दीप पर्व, लाता रोशनी का संदेश,
पर क्या जलाया अंतर्मन, या फिर दीप विशेष?
भीतर झांको, पूछो खुद से, क्या बढ़ा है ज्ञान?
या अब भी छाया है भीतर, अज्ञान का संधान?
निरंतर आत्म-मूल्यांकन, यही है सच्ची दीवाली,
हर क्षण खुद को देखो तुम, ना हो आंतरिक खाली।
बाहर की चकाचौंध व्यर्थ है, जब तक मन न हो स्वच्छ,
सत्य की लौ जलानी होगी, तब ही होगा लक्ष।
अज्ञान की परछाईं अक्सर, ज्ञान का रूप बन जाए,
जो कुछ जाना है हमने, वह भ्रम भी तो कहलाए।
नश्वर विचारों की परतों को, छांटना होगा अब,
तभी प्रकाशित होगा भीतर, असली सत्य-सबब।
राम-कृष्ण की गाथाएं, आदर्शों की मिसाल,
धर्म और नीति की जोत बनें, बनें कर्मों की ढाल।
त्याग, प्रेम, और न्याय जहां, वहीं हो दीप जलाए,
केवल पूजा से न हो प्रकाश, जब तक मन न पाये।
भिन्न पंथ, एक संदेश, सबके अपने अर्थ,
जैन, सिख, बुद्ध या हिंदू, सबका दीप अनर्थ मिटाए।
संस्कृति की यह एकता, मानवता का शृंगार,
बिखरे नहीं, जुड़ें सभी, यही हो त्योहार।
समाज की विषमता पर भी डालें दृष्टि,
जहां एक ओर उल्लास है, वहीं भूख है सृष्टि।
सच्चा उत्सव तब ही होगा, जब सबका दीप जले,
भूखे की थाली में रौशनी हो, तब दीपों का फल खिले।
भारतीय अध्यात्म कहे, सेवा ही पूजा है,
आत्मा की करुणा से ही, जीवन में दूजा है।
हर कर्म हो समर्पण से, हर सोच हो निर्मल,
तभी होगा उत्सव सच्चा, सजीव और सरल।
भोगों से ऊपर उठ कर, पाना होगा सार,
माटी के खिलौनों में क्या, जो मिट जाए हर बार?
विराग में जो उत्सव है, वही दीप है प्रखर,
जो दे आत्मा को प्रकाश, वही त्याग का घर।
ना केवल मिठाइयों का स्वाद, ना केवल सजावट,
दीपावली है आत्मचिंतन, आत्मा की सजावट।
प्रेम, सेवा, और सत्य का जो दीप मन में जलाए,
वही दीपोत्सव सच्चा है, जो मानवता सिखाए।
- मनीभाई नवरत्न