14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर कविता

14 sitambar hindi divas par kavita

हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है। 14 सितम्बर, 1949 के दिन संविधान निर्माताओं ने संविधान के भाषा प्रावधानों को अंगीकार कर हिन्दी को भारतीय संघ की राजभाषा के रूप में मान्यता दी। अतः इस दिन 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में मानते है.

निज भाषा

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल ।

बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय का शूल ॥

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार ।

सब देशन से लै करहु, भाषा माँहि प्रचार ॥

धर्म, जुद्ध, विद्या, कला, गीत, काव्य अरु ज्ञान ।

सबके समझन जोग है, भाषा माँहि समान ॥

भाषा-वन्दन

सोम ठाकुर

करते हैं तन मन से वन्दन जनगणमन की अभिलाषा का,

अभिनन्दन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।

यह अपनी शक्ति सर्जना का,

माथे की है चंदन रोली,

माँ के आंचल की छाया में,

हमने जो सीखी है बोली।

यह अपनी बँधी हुई अंजुरी, यह अपने गंधित शब्द-सुमन,

यह पूजन अपनी संस्कृति का, यह अर्चन अपनी भाषा का ।

अपने रत्नाकर के रहते,

किसकी धारा के बीच बहें,

हम इतने निर्धन नहीं कि,

भाषा से औरों के ऋणी रहें,

इसमें प्रतिबिम्बित है अतीत, आकार ले रहा वर्तमान,

यह दर्शन अपनी संस्कृति का, यह दर्पण अपनी भाषा का।

यह ऊँचाई है तुलसी की,

यह सूर सिन्धु की गहराई

टंकार चंदबरदाई की,

यह विद्यापति की पुरवाई,

जयशंकर का जयकार, निराला का यह अपराजेय ओज,

यह गर्जन अपनी संस्कृति का, यह गुंजन अपनी भाषा का ।.

जय हिंदी

मगन अवस्थी

जय हिन्दी, जय देवनागरी !

जय कबीर तुलसी की वाणी,

मीरा की वाणी कल्याणी 1

सूरदास के सागर-मन्थन

की मणिमंडित सुधा-गागरी ।

जय हिंदी, जय देवनागरी !

जय रहीम-रसखान – रस भरी,

घनानन्द-मकरन्द-मधुकरी ।

पद्माकर, मतिराम, देव के

प्राणों की मधुमय विहाग री ।

जय हिन्दी, जय देवनागरी ।

भारतेन्दु की विमल चांदनी,

रत्नाकर की रश्मि मादनी।

भक्ति-स्नान और कर्म क्षेत्र की,

भागीरथी भुवन- उजागरी ।

जय हिन्दी, जय देवनागरी !

जय स्वतन्त्र भारत की आशा,

जय स्वतन्त्र भारत की भाषा।

भारत-जननी के मस्तक की

श्री-शोभा-कुंकुम-सुहाग री।

जय हिन्दी, जय देवनागरी !

मैं हिंदी हूँ

ज्ञानवती सक्सेना

मत नकारो इस तरह अस्तित्व मेरा,

ज्ञान दात्री मैं तिमिर में वर्त्तिका हूँ ।

सूर तुलसी और मीरा के अधर पर,

स्नेह डूबे आंचलिक स्वर में ढली मैं।

कवि निराला, पंत की अभ्यर्थना में,

बन महादेवी खड़ी होकर चली मैं ।

मत नकारो शब्द – शब्द कवित्व मेरा,

पद-भजन-मुक्तक-सवैया गीतिका हूँ ।

मैं रहीम, कबीर, खुसरो की गली में,

आत्म-मुग्धा-सी स्वयं पर रीझती थी।

रक्त में रसखान के रच-बस गई तो,

मंदिरों की मूर्ति जैसी भीगती थी ।

मत नकारो, पोर-पोर, कवित्व मेरा,

सूक्तियाँ साधे समय की पुस्तिका हूँ ।

सूर्यकांत हुए प्रखर दीखे निराला,

मैथिली शरणम् हुई सरला कहाई ।

कवि प्रसाद रवींद्र – दिनकर के दृगों में,

चढ़ गई तो यश सरित् प्रतिमा नहाई ।

मत नकारो भारतेंदु घनत्व मेरा,

मैं तुम्हारे ही गगन की चंद्रिका हूँ।

एक तुलसीदास के मानस चरित में,

नव-रसों के कलश भरकर ढुल गई मैं ।

कल्पना में डूबते- तिरते बहे तो,

सूर के दो आँसुओं में तुल गई मैं ।

मत नकारो युग प्रवर्तक तत्त्व मेरा,

मैं सदा साहित्य की संरक्षिका हूँ ।

वीरगाथा काल में होकर खड़ी मैं,

सैनिकों में प्राण भर हुंकारती थी ।

भारतेंदु सजग हुआ हिंदी -भवन में,

मैं कुटी से महल तक गुँजारती थी ।

मत नकारो वेदभाष्य महत्त्व मेरा,

संस्कृति की बीज कोई वाटिका हूँ ।

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