जाने कैसी बात चली है

जाने कैसी बात चली है

जाने कैसी बात चली है।
सहमी-सहमी बाग़ कली है।।

जिन्दा होती तो आ जाती
शायद बुलबुल आग जली है।

दुख का सूरज पीड़ा तोड़े
सुख की मीठी रात ढली है।।

नींद कहाँ बसती आँखों में
जब से घर बुनियाद हिली है।।

महक उठा आँगन खुशियों से
जब-जब माँ की बात चली है ।।


अशोक दीप

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