कागा की प्यास
कागा पानी चाह में,उड़ते लेकर आस।
सूखे हो पोखर सभी,कहाँ बुझे तब प्यास।।
कहाँ बुझे तब प्यास,देख मटकी पर जावे।
कंकड़ लावे चोंच,खूब धर धर टपकावे।।
पानी होवे अल्प,कटे जीवन का धागा।
उलट कहानी होय,मौत को पावे कागा।।
कौआ मरते देख के,मानव अंतस नोच।
घट जाए जल स्रोत जो,खुद के बारे सोच।।
खुद के बारे सोच,बाँध नदिया सब भर ले।
पानी से है जान,खपत को हम कम कर ले।।
कम होते जल धार,बात माने सच हौआ।
सलिल रहे जो सार,मरे फिर काहे कौआ।।
राजकिशोर धिरही
तिलई,जांजगीर
छत्तीसगढ़
9827893645
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद