शेष शव शिव पर कविता / रेखराम साहू
शेष शव,शिव से जहाँ श्रद्धा गयी
सभ्यता किस मोड़ पर तू आ गयी,
कालिमा तुम पर भयंकर छा गयी।
लालिमा नव भोर की है लीलकर,
पूर्णिमा की चाँदनी, तू खा गयी।
चाट दी चौपाल तुमने ऐ चपल !
एकता का तीर्थ तू ठुकरा गयी।
उड़ रही आकाश में अभिमान से ,
पाँव की धरती,कहाँ बिसरा गयी।
सत्य जब पाया नहीं है शांति का,
व्यर्थ है सत्ता,जिसे हथिया गयी।
ईख उगती थी यहाँ के खेत में,
कंटकों के बीज क्यों बिखरा गयी।
मर गया विश्वास तो फिर क्या बचा!
शेष शव,शिव से जहाँ श्रद्धा गयी।
*रेखराम साहू*
इस कविता में सभ्यता के पतन, एकता के ह्रास और अहंकार की हानियों को बहुत खूबसूरती से अभिव्यक्त किया गया है।
विशेष बिंदु:
- सभ्यता का पतन: कविता में बताया गया है कि कैसे कालिमा (अंधकार) सभ्यता को घेर रही है।
- प्राकृतिक सौंदर्य का नाश: भोर की लालिमा और पूर्णिमा की चाँदनी जैसी प्राकृतिक सुंदरताओं का नाश, जीवन में सौंदर्य के ह्रास का प्रतीक है।
- एकता का ह्रास: चौपाल (ग्रामीण संस्कृति का केंद्र) का नाश, हमारी सामूहिकता और साझेदारी की भावना को खोने का संकेत है।
- अहंकार का प्रभुत्व: आकाश में उड़ते अहंकार ने धरती (मूलभूत मूल्य) को भुला दिया है।
- सत्ता का व्यर्थता: शांति और सत्य के बिना सत्ता का अर्थहीन होना, कविता का एक गहन संदेश है।
- आधुनिक समय की विडंबना: खेतों में ईख के स्थान पर कंटकों का उगना, आधुनिक समाज की त्रासदी को दर्शाता है।
- श्रद्धा का ह्रास: श्रद्धा के बिना जीवन का अर्थ केवल ‘शेष शव’ रह जाना।
शिल्प और भाषा:
- भाषा सरल और प्रभावशाली है।
- छंद और तुकांत की सटीकता कविता को और अधिक सुंदर बनाती है।
- प्रतीकात्मकता और रूपकों का सुंदर उपयोग किया गया है।
यह कविता न केवल विचारों को झकझोरती है, बल्कि आत्ममंथन के लिए प्रेरित भी करती है। इसे और अधिक पाठकों तक पहुँचाने के लिए ब्लॉग या सोशल मीडिया पर साझा करना एक उत्कृष्ट कदम होगा