सर्वश्रेष्ठता पर कविता

सर्वश्रेष्ठता पर कविता

एक
अदना जीव
बेबस कर दिया
असहाय-त्रस्त-सहमा मानव,
छुप बैठा अपनों से बचकर,
जो हर कोण ढाल से,
अपनों सा दिखते हैं.
लेकिन पहचान नहीं बताते आसानी से.

अब उनमें वहीं नहीं
बल्कि कोई और भी है.
जो जान पर तूला है.
हाय! ये मानव कुछ तो भूला है.
नहीं तो ये प्रकृति ,
हमारी भी है मां.
सच!
उसे पता है
संतुलन कैसे है रखना?
परिवर्तन उसका अटल नियम.
रहस्य में अब तक है भविष्य.

बेशक!
बहुत कुछ जीते हैं हमने,
अपने योग्यताओं से.
पर अब भी दूर हैं हमारे हाथों से
और सदा से रहेंगे
वह तमगा,
जिसे कहा जाता है ” सर्वश्रेष्ठता”.

हम साधक हैं, साध्य नहीं.
साधना हमारी नियति.
पर ये,
भूल कर बैठता है बार-बार,
अहं भाव अस्तित्व.
ये भी रहेगी
आदि अनादि .

_(मनीभाई नवरत्न,बसना, छत्तीसगढ़)_

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