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आखिर क्यों? – सृष्टि कुमारी

आखिर क्यों?

क्यों बना दिया मुझे पराया?
क्यों कर दिया आपने मेरा दान?
एक बेटी पूछ रही पिता से,
क्या मेरी नहीं कोई अपनी पहचान?

बेटों के आने पर खुशियां मनाते हो,
फिर बेटी के आने पर हम क्यों?
एक बेटी पूछ रही पिता से,
हम भी तो आपके ही अंश हैं, क्यों मुझे पराया कहते हो?

कभी मां, कभी बहन, कभी पत्नी,
तो कभी बेटी बनती हूं मैं,
क्या मेरा बस अस्तित्व यही है?
क्यों नहीं बनाने देते मुझे अपनी पहचान?
क्यों मेरे पावों में डाल रखी है बेड़ियां?

घर के जिम्मेदारियों को निभाते हैं हम,
सब के सुख-दुख का ख्याल रखते हैं हम।
फिर भी होती हर पल अपमानित,
मिलती है सिर्फ घरवालों का ताना।
क्या हम किसी सम्मान के हकदार नहीं हैं?

कभी घूंघट तो कभी बुर्का में निकलती बाहर,
रीति-रिवाजों के बंधन में बांध देते हैं हमें।
कभी सोचती अकेले में तो कांप जाते हैं रुह मेरे,
आखिर किस गुनाह की सजा भुगत रहे हैं हम?

इस समाज के खोखले रिवाजों का,
कब तक होते रहेंगे हम शिकार?
एक बेटी पूछ रही पिता से,
क्यों नहीं देते मुझे बेटों के समान अधिकार?

कब तक जलते रहेंगे हम बेटियां,
इन संस्कारों के आग में?
अब सहन नहीं कर सकते, ये चाहर दिवारियों की कैद हम।
एक बेटी कह रही पिता से,
लौटा दो मुझे मेरी पहचान,
भर दो मेरी भी झोली में खुशियां और सम्मान,
मैं भी बनना चाहती आपके आंखों का तारा,
बनने दो मुझे भी अपने बुढ़ापे का सहारा।
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Written by – Sristi kumari

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