मणिकर्णिका-झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर कविता
अंग्रेजों को याद दिला दी,
जिसने उनकी नानी।
मर्दानी, हिंदुस्तानी थी,
वो झांसी की रानी।।
अट्ठारह सौ अट्ठाइस में,
उन्नीस नवंबर दिन था।
वाराणसी हुई वारे न्यारे,
हर सपना मुमकिन था।।
नन्हीं कोंपल आज खिली थी,
लिखने नई कहानी…
“मोरोपंत” घर बेटी जन्मी,
मात “भगीरथी बाई”।
“मणिकर्णिका” नामकरण,
“मनु” लाड कहलाई।।
घुड़सवारी, रणक्रीडा, कौशल,
शौक शमशीर चलानी…
मात अभावे पिता संग में,
जाने लगी दरबार।
नाम “छबीली” पड़ा मनु का,
पा लोगों का प्यार।।
राजकाज में रुचि रखकर,
होने लगी सयानी…
वाराणसी से वर के ले गए,
नृप गंगाधर राव।
बन गई अब झांसी की रानी,
नवजीवन बदलाव।।
पुत्र हुआ, लिया छीन विधाता,
थी चार माह जिंदगानी…
अब दत्तक पुत्र “दामोदर”,
दंपत्ति ने अपनाया।
रुखसत हो गये गंगाधर,
नहीं रहा शीश पे साया।।
देख नजाकत मौके की,
अब बढी दाब ब्रितानी…
छोड़ किला अब झांसी का,
रण महलों में आई।
“लक्ष्मी” की इस हिम्मत नें,
अंग्रेजी नींद उड़ाई।।
जिसको अबला समझा था,
हुई रणचंडी दीवानी…
झांसी बन गई केंद्र बिंदु,
अट्ठारह सौ सत्तावन में।
महिलाओं की भर्ती की,
स्वयंसेवक सेना प्रबंधन में।।
हमशक्ल बनाई सेना प्रमुख,
“झलकारी बाई” सेनानी…
सर्वप्रथम ओरछा, दतिया,
अपनों ने ही बैर किया।
फिर ब्रितानी सेना ने,
आकर झांसी को घेर लिया।।
अंग्रेजी कब्जा होते ही,
“मनु” सुमरी मात भवानी…
ले “दामोदर” छोड़ी झांसी,
सरपट से वो निकल गई।
मिली कालपी, “तांत्या टोपे”,
मुलाकात वो सफल रही।।
किया ग्वालियर पर कब्जा,
आंखों की भृकुटी तानी…
नहीं दूंगी मैं अपनी झांसी,
समझौता नहीं करूंगी मैं।
नहीं रुकुंगी नहीं झुकूंगी,
जब तक नहीं मरूंगी मैं।।
मैं भारत मां की बेटी हूं,
हूं हिंदू, हिंदुस्तानी…
अट्ठारह जून मनहूस दिवस,
अट्ठारह सौ अट्ठावन में।
“मणिकर्णिका” मौन हुई,
“कोटा सराय” रण आंगन में।।
“शिवराज चौहान” नमन उनको,
जो बन गई अमिट निशानी…
ः– *शिवराज सिंह चौहान*
नांधा, रेवाड़ी
(हरियाणा)
१८-०६-२०२१