हरिवंशराय बच्चन की १० लोकप्रिय रचनाएँ सादर प्रस्तुत हैं
आत्मपरिचय / हरिवंशराय बच्चन
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ; कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ, मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ, जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते, मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ, मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ; है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ, सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ; जग भ्ाव-सागर तरने को नाव बनाए, मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ, उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ, जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर, मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना? नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना! फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे? मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना!
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता, मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता; जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव, मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ, शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ, हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर, मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना, मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना; क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए, मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ, मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ; जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए, मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
मधुबाला / हरिवंशराय बच्चन
1.
मैं मधुबाला मधुशाला की, मैं मधुशाला की मधुबाला! मैं मधु-विक्रेता को प्यारी, मधु के धट मुझ पर बलिहारी, प्यालों की मैं सुषमा सारी, मेरा रुख देखा करती है मधु-प्यासे नयनों की माला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
2.
इस नीले अंचल की छाया में जग-ज्वाला का झुलसाया आकर शीतल करता काया, मधु-मरहम का मैं लेपन कर अच्छा करती उर का छाला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
3.
मधुघट ले जब करती नर्तन, मेरे नुपुर की छम-छनन में लय होता जग का क्रंदन, झूमा करता मानव जीवन का क्षण-क्षण बनकर मतवाला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
4.
मैं इस आंगन की आकर्षण, मधु से सिंचित मेरी चितवन, मेरी वाणी में मधु के कण, मदमत्त बनाया मैं करती, यश लूटा करती मधुशाला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
5.
था एक समय, थी मधुशाला, था मिट्टी का घट, था प्याला, थी, किन्तु, नहीं साकीबाला, था बैठा ठाला विक्रेता दे बंद कपाटों पर ताला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
6.
तब इस घर में था तम छाया, था भय छाया, था भ्रम छाया, था मातम छाया, गम छाया, ऊषा का दीप लिये सर पर, मैं आई करती उजियाला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
7.
सोने सी मधुशाला चमकी, माणिक द्युति से मदिरा दमकी, मधुगंध दिशाओं में चमकी, चल पड़ा लिये कर में प्याला प्रत्येक सुरा पीनेवाला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
8.
थे मदिरा के मृत-मूक घड़े, थे मूर्ति सदृश मधुपात्र खड़े, थे जड़वत प्याले भूमि पड़े, जादू के हाथों से छूकर मैंने इनमें जीवन डाला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
9.
मझको छूकर मधुघट छलके, प्याले मधु पीने को ललके , मालिक जागा मलकर पलकें, अंगड़ाई लेकर उठ बैठी चिर सुप्त विमूर्छित मधुशाला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
10.
प्यासे आए, मैंने आँका, वातायन से मैंने झाँका, पीनेवालों का दल बाँका, उत्कंठित स्वर से बोल उठा ‘कर दे पागल, भर दे प्याला!’ मैं मधुशाला की मधुबाला!
11.
खुल द्वार गए मदिरालय के, नारे लगते मेरी जय के, मिटे चिन्ह चिंता भय के, हर ओर मचा है शोर यही, ‘ला-ला मदिरा ला-ला’!, मैं मधुशाला की मधुबाला!
12.
हर एक तृप्ति का दास यहां, पर एक बात है खास यहां, पीने से बढ़ती प्यास यहां, सौभाग्य मगर मेरा देखो, देने से बढ़ती है हाला! मैं मधुशाला की मधुबाला!
13.
चाहे जितना मैं दूं हाला, चाहे जितना तू पी प्याला, चाहे जितना बन मतवाला, सुन, भेद बताती हूँ अंतिम, यह शांत नहीं होगी ज्वाला. मैं मधुशाला की मधुबाला!
14.
मधु कौन यहां पीने आता, है किसका प्यालों से नाता, जग देख मुझे है मदमाता, जिसके चिर तंद्रिल नयनों पर तनती मैं स्वपनों का जाला। मैं मधुशाला की मधुबाला!
15.
यह स्वप्न-विनिर्मित मधुशाला, यह स्वप्न रचित मधु का प्याला, स्वप्निल तृष्णा, स्वप्निल हाला, स्वप्नों की दुनिया में भूला फिरता मानव भोलाभाला. मैं मधुशाला की मधुबाला!
एहसास / हरिवंशराय बच्चन
ग़म ग़लत करने के जितने भी साधन मुझे मालूम थे, और मेरी पहुँच में थे, और सबको एक-एक जमा करके मैंने आजमा लिया, और पाया कि ग़म ग़लत करने का सबसे बड़ा साधन है नारी और दूसरे दर्जे पर आती है कविता, और इन दोनों के सहारे मैंने ज़िन्दगी क़रीब-क़रीब काट दी. और अब कविता से मैंने किनाराकशी कर ली है और नारी भी छूट ही गई है– देखिए, यह बात मेरी वृद्धा जीवनसंगिनी से मत कहिएगा, क्योंकि अब यह सुनकर वह बे-सहारा अनुभव करेगी– तब,ग़म ? ग़म से आखिरी ग़म तक आदमी को नज़ात कहाँ मिलती है.
पर मेरे सिर पर चढ़े सफेद बालों और मेरे चेहरे पर उतरी झुर्रियों ने मुझे सीखा दिया है कि ग़म– मैं गलती पर था– ग़लत करने की चीज है ही नहीं; ग़म,असल में सही करने की चीज है; और जिसे यह आ गया, सच पूछो तो, उसे ही जीने की तमीज़ है.
चल चुका युग एक जीवन / हरिवंशराय बच्चन
तुमने उस दिन शब्दों का जाल समेत घर लौट जाने की बंदिश की थी सफल हुए ? तो इरादों में कोई खोट थी .
तुमने जिस दिन जाल फैलाया था तुमने उदघोष किया था, तुम उपकरण हो, जाल फैल रहा है;हाथ किसी और के हैं. तब समेटने वाले हाथ कैसे तुम्हारे हो गए ?
फिर सिमटना इस जाल का स्वभाव नहीं; सिमटता-सा कभी इसके फैलने का ही दूसरा रूप है, साँसों के भीतर-बाहर आने-जाने-सा आरोह-अवरोह के गाने-सा (कभी किसी के लिए संभव हुआ जाल-समेत तो उसने जाल को छुआ भी नहीं; मन को मेटा. कठिन तप है,बेटा !)
और घर ? वह है भी अब कहाँ ! जो शब्दों को घर बनाते हैं वे और सब घरों से निर्वासित कर दिए जाते हैं. पर शब्दों के मकान में रहने का मौरूसी हक भी पा जाते हैं .
और ‘लौटना भी तो कठिन है,चल चुका युग एक जीवन’ अब शब्द ही घर हैं, घर ही जाल है, जाल ही तुम हो, अपने से ही उलझो, अपने से ही उलझो, अपने में ही गुम हो.
मैं कल रात नहीं रोया था / हरिवंशराय बच्चन
दुख सब जीवन के विस्मृत कर, तेरे वक्षस्थल पर सिर धर, तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था! मैं कल रात नहीं रोया था!
प्यार-भरे उपवन में घूमा, फल खाए, फूलों को चूमा, कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने ढोया था! मैं कल रात नहीं रोया था!
आँसू के दाने बरसाकर किन आँखो ने तेरे उर पर ऐसे सपनों के मधुवन का मधुमय बीज, बता, बोया था? मैं कल रात नहीं रोया था!
नीड का निर्माण / हरिवंशराय बच्चन
नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर!
वह उठी आँधी कि नभ में छा गया सहसा अँधेरा, धूलि धूसर बादलों ने भूमि को इस भाँति घेरा,
रात-सा दिन हो गया, फिर रात आई और काली, लग रहा था अब न होगा इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्पात-भय से भीत जन-जन, भीत कण-कण किंतु प्राची से उषा की मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर!
वह चले झोंके कि काँपे भीम कायावान भूधर, जड़ समेत उखड़-पुखड़कर गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित घोंसलो पर क्या न बीती, डगमगाए जबकि कंकड़, ईंट, पत्थर के महल-घर;
बोल आशा के विहंगम, किस जगह पर तू छिपा था, जो गगन पर चढ़ उठाता गर्व से निज तान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर!
क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों में उषा है मुसकराती, घोर गर्जनमय गगन के कंठ में खग पंक्ति गाती;
एक चिड़िया चोंच में तिनका लिए जो जा रही है, वह सहज में ही पवन उंचास को नीचा दिखाती!
नाश के दुख से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख प्रलय की निस्तब्धता से सृष्टि का नव गान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर!
कोई पार नदी के गाता / हरिवंशराय बच्चन
भंग निशा की नीरवता कर, इस देहाती गाने का स्वर, ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता! कोई पार नदी के गाता!
होंगे भाई-बंधु निकट ही, कभी सोचते होंगे यह भी, इस तट पर भी बैठा कोई उसकी तानों से सुख पाता! कोई पार नदी के गाता!
आज न जाने क्यों होता मन सुनकर यह एकाकी गायन, सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता! कोई पार नदी के गाता!
मधुशाला /हरिवंशराय बच्चन
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।
प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला, एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला, जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका, आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला, मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता, एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला, कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।
मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला, भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला, उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ, अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला, ‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला, अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ – ‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।’। ६।
चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला! ‘दूर अभी है’, पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला, हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे, किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।
मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला, हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला, ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का, और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।
मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला, अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला, बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे, रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।
सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला, सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला, बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है, चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।
जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला, वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला, डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है, मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।
मेहंदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला, अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला, पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले, इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।
हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला, अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला, बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले, पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।
लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला, फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला, दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं, पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।
जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला, जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला, ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है, जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।
बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला, देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला, ‘होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले’ ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला, मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला, पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका, कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।
लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला, हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला, हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा, व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।
बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला, रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला’ ‘और लिये जा, और पीये जा’, इसी मंत्र का जाप करे’ मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।
बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला, बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला, लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें, रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।
चेतावनी -हरिवंशराय बच्चन’
जगो कि तुम हजार साल सो चुके, जगो कि तुम हजार साल खो चुके, जहान बस सजग-सचेत आज तो तुम्हीं रहो पड़े हुए न आज बेखबर!
उठो चुनौतियाँ मिली, जवाब दो, कदीम कौम-नस्ल का हिसाब दो,
उठो स्वराज के लिए खिराज दो, उठो स्वदेश के लिए कसो कमर!
बढ़ो गनीम सामने खड़ा हुआ, बढ़ो निशान जंग का गढ़ा हुआ, सुयश मिला कभी नहीं पड़ा हुआ, मिटो, मगर लगे न दाग देश पर!
-हरिवंशराय बच्चन’
अग्निपथ -हरिवंशराय बच्चन
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ! वृक्ष हों भले खड़े हों घने, हों बड़े एक पत्र छाँह भी माँग मत ! माँग मत ! माँग मत! तू न थकेगा कभी तू न थमेगा कभी तू न मुड़ेगा कभी कर शपथ! कर शपथ! कर शपथ!
यह महान दृश्य है चल रहा मनुष्य है अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ! लथपथ! लथपथ! अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!
बढ़ो नयी जवानियाँ, सर्जी कि शीश झुक गए, बढ़ो मिली कहानियाँ, कि प्रेम-गीत रुक गए। चलो कि आज स्वत्व का, समर तुम्हें पुकारता, चलो कि देश का, सुमन-सुमन निहारता।
जगो, उठो, चलो, बढ़ो, लिये कलम कराल-सी, डसे जो शत्रु-सैन्य को, उसे तुरन्त व्याल सी! उठो स्वदेश के लिए, बने कराल काल तुम उठो स्वदेश के लिए, बने विशाल ढाल तुम।
खाने लगा अनजान, शरीर खोखला करने लगा, मन मंदिर हुआ वीरान।
धीरे धीरे सामने आए, तम्बाकू के दुष्परिणाम, डॉक्टर के पास जाना पड़ा, हुआ गलती का भान।
फिर कसम खाई मैंने, छोड़ दिया नशे का साथ, तम्बाकू मुक्त हो गया, मेरा भारत महान।।
मनीष शुक्ल, लख़नऊ
तंबाकू निषेध दिवस पर कविता
जो समय से पहले सँभले, उसका जीवन महान । वरना मौत कभी भी आये,
जैसे कोई हो मेहमान ।
हुक्का हो या बीड़ी ! मौत की है यह सीढ़ी !
यह किसी का दोस्त नहीं ! देता मौत, दुश्मन है यही !
रोगों की जैसे अलमारी। हो कैंसर जैसे बीमारी !
जल्द ले लो, इससे छुटकारा ! क्योंकि,जिंदगी न मिले दोबारा !
तम्बाकू को दूर भगाओ ! देश को स्वस्थ बनाओ !
तम्बाकू निषेध दिवस पर ये आह्वान। तम्बाकू छोड़ो वरना ,ले लेगी जान ।।
रूद्र शर्मा
तम्बाकू एक भूरा जहर
आया प्रचलन अमेरिका से, दुनिया में बोया जाता है। आर्यावर्त में नंबर दूसरे पर, यह पाया जाता है। हो जाती है सुगंध की कमी, जब यज्ञ पूजा में, तंबाकू ताजगी खातिर , तब सुलगाया जाता है।।
मगर देखो कैसा रूप , धारण कर लिया इसने। तम्बाकू सुर्ती खैनी का बिजनेस, कर लिया जिसने। धरा पर रूप धारण करके, चूरन बनकर आया। मुखों में हम सबके घाव, कैंसर कर दिया इसने।।
बीड़ी सिगरेट जैसा उपयोग, इसका धूम्रपानों में। धुँआ बन जहर भरता है, यह तो आसमानों में। तम्बाकू हुक्का चिलम की , आदत बनकर देखो। लगाता आग सीने में, श्वशन के कारमानों में।।
लिखा हर पैक पर होता , तम्बाकू जानलेवा है। फिर भी हम खाते हैं इसको, जैसे सुंदर सा मेवा है। समझ आता नहीं हमको, मेधा चकरा सी जाती है। जानलेवा बिके थैली में, तो यह कैसी सेवा है।।
धारा बर्बादी की बह रही , उसको मोड़ना होगा। नासमझी की कड़ियों को, मिलकर तोड़ना होगा। गर रहना है स्वस्थ , जीना है दीर्घ जीवन तो। इस भूरे जहर को , अब तो छोड़ना होगा।।
अशोक शर्मा
विश्व तंबाकू निषेध दिवस पर कविता
नशा नाश की जड़ है भैया कहत जगत में लोग लुगइयां खोवे सुख तन और रुपैया थोरी होत है जीवन नैया।
सुन लो चाचा,ताऊ,मैया। और दीदी,दाऊ, भैया खावे गुटका,पान, सुपारी इन से होत है कई बीमारी। राखै बीड़ी चिल्लम व हुक्को इनको मारो अब थे धक्कों। सिगरेट फूंके बूढ़ो काको फिर लेवे जर्दा रो फांको
कहणो मानो सा थे म्हाको नहीं तो नशो नाश हे थांको सब भाया सू कहणो नशों नाश रो गहणो
के०के० रैगर (शिशु अध्यापक)
तंबाकू सेहत के लिए हानिकारक
तंबाकू है एक मीठा जहर, जुबां पर यदि चढ़ जाए, सेहत, स्वास्थ्य को हानि पहुंचा, मानव को मृत्यु द्वार तक ले जाए।
चुटकी भर तंबाकू ने, हजारों बीमारियों को जन्म दिया, टीबी,अस्थमा, लंग कैंसर का
खतरा पल में बढ़ा दिया।
गुटखा, जर्दा, पान मसाला, और बीड़ी का रूप लिया, तंबाकू की लत होती ऐसी, कर देती मन को तुरत अधीर, आर्थिक,शारीरिक, मानसिक रूप से, मानव की सेहत को कर देती क्षीण, तंबाकू सेहत के लिए हानिकारक।
यह सिगरेट की डिब्बी, पाउच पर अंकित होता, देखा अनदेखा करने से,किसी का ना भला होगा, सरकार को दोष क्यों देते हैं,पहले अंतर्मन में झांको, गुटके,तंबाकू जैसे मादक पदार्थों को, ना खाओ औरों को ना खाने दो।
नीतियां बनी कई अब तक, आगे भी कई बन जाएंगी, कड़ाई से यदि पालन ना हो, सब कागजी रह जाएंगी, जागरूक करो सब निज मन को, समाज में जागरूकता लाओ, क्या हैं दुष्परिणाम तंबाकू के, खुद समझो सब को समझाओ।
“तंबाकू ले लेगी जान”, तंबाकू निषेध के मंत्र को, सब जन मिलकर अपनाओ, विश्व तंबाकू निषेध दिवस की, सार्थकता चरितार्थ करके दिखलाओ।।
–अमिता गुप्ता
क्यूं बने हैं अनजान
छोड़ो सभी तम्बाकू ये तो ले लेगी जान सब जानकर फिर क्यूं बने है अनजान ??
तम्बाकू हानिकारक है यह सब जन जानते तम्बाकू का सब जन सेवन करते क्यूं नहीं मानते तम्बाकू एक नशीला पदार्थ इसका बुरा है परिणाम छोड़ो सभी तम्बाकू ये तो ले लेगी जान सब जन जानकर क्यूं बने हैं अनजान ।
गुटके संग खाते तम्बाकू स्मोकिंग भी करते धासूं दूध दही घी को भी छोड़े ना खाते फल मेवा काजू युवा पीढ़ी का तो क्या कहना युवाओं का स्मोकिंग पर अधिक रुझान छोड़ो सभी तम्बाकू ये तो ले लेगी जान सब जन जानकर क्यूं बने हैं अनजान ।
करके तम्बाकू सेवन फेफड़ों में इंफेक्शन बढ़ा रहे लीवर कैंसर, मुहं कैंसर इरेक्टाइल संग डिप्रेशन भी बढ़ा रहे शरीर को दिन पर दिन पहुंचाते नुकसान छोड़ो सभी तम्बाकू ये तो ले लेगी जान सब जन जान कर क्यूं बने हैं अनजान ।
आज मनाएंगे तम्बाकू निषेध दिवस लोगों को जागरूक कर तम्बाकू छोड़ने को करे विवश खत्म कर ‘तम्बाकू रूपी बुराई ‘को मिटायेंगे लोगों के जीवन का तमस् तंबाकू निषेध दिवस मना कर सफल करे अभियान ‘एकता’ इतना कहना चाहे छोड़ तम्बाकू सुधार लो अपना भविष्य और वर्तमान ।।
–एकता गुप्ता
जानलेवा जहर है तम्बाकू
बड़ा होना सब तम्बाकू के बिना। स्वस्थ रहो सब तम्बाकू के बिना।। मौत के मूँह मे धकेले व्यक्ति को मारक धुआं मारता है दूसरों को ऐसा जानलेवा जहर है तम्बाकू।।
तम्बाकू पीता है आनंद के लिए कैंसर जैसी बीमारियों के लिए जब बड़ों को नशे का सेवन करते देखके बच्चे भी….हाँ बच्चे भी…. आगे चलके करने लगे नशे का सेवन ऐसा जानलेवा जहर है तम्बाकू।।
बीमारी है तम्बाकू का असली चेहरा जानो जिसको, हत्यारा होता है जैसा छोड़ दो तम्बाकू , छोड़ दो ये आदत जियो जिन्दगी सब नशा के बिना बडा होना सब तम्बाकू के बिना।।
अगर तम्बाकू का सेवन करना छोड़ दो सकारात्मक बदलाव शुरू होते है शरीर में सामान्य रहता है ब्लड प्रेशर कम होता है दिल संबंधी बीमारियों का खतरा स्वस्थ रहो सब तम्बाकू के बिना।।
आओ तम्बाकू मुक्त अभियान चलायें तम्बाकू को कभी भी हाथ न लगायें हम सबका यही हो सपना…. रहे तम्बाकू मुक्त देश अपना….
– बीना .एम केरल
विश्व तम्बाकू निषेध दिवस परकविता
तम्बाकू एक ऐसा है नशा । बिगड़े जिससे घर की दशा।
तम्बाकू जानलेवा ,सभी पढ़ते । फिर भी क्यों इसका सेवन करते।
तम्बाकू की हरेक पत्तियां । लाती हैं घर में विपत्तियां ।
तम्बाकू से मिटता सुख चैन । अब तो होना चाहिए इसे बैन।
तम्बाकू को त्याग कर सेहत बनाइए, स्वयं बचिए , और पैसे भी बचाइए।
प्रियांशी जी का सबसे अनुरोध है, तम्बाकू पर अब लगाना प्रतिरोध है।
तम्बाकू त्यागने वाले के हम साथ है। छोड़ोगे तब जानें, तुममें भी कुछ बात है।
प्रियांशी मिश्रा
तंबाकू मीठा जहर
नशा नाश की जड़ बने, याद रखो यह बात। बर्बादी तन – मन करे, बने नहीं सौगात ।। 1
जो नर करता नित्य ही , तंबाकू उपभोग । उनको कैंसर स्ट्रोक मुँह , दिल का होता रोग ।।2
क्यों जीवन में कश लगा, धुआँ उड़ाते रोज। मौत बुलाकर पास में, खोते जीवन ओज।।3
तंबाकू मीठा जहर, खाते वृद्ध जवान । शनैः शनैः यह आदमी , की ले लेता जान ।।4
जो बीड़ी सिगरेट का, करता निशदिन पान । रक्तचाप बढ़ता दमा , तन होता बेजान ।।5
तंबाकू बनता नहीं, कभी हमारा मित्र। क्यों खाते हो देखकर , खतरा कैंसर चित्र।।7
नशा मूल को छोड़ने, करो नित्य ही योग। तन मन होगा शुद्ध सब , काया बने निरोग।।8
तंबाकू सेवन करे, मौत बुलाए पास। अपने पीछे छोड़कर , रहतें सदा उदास।।9
क्लेश मिटाकर गेह से, सुदृढ़ करो अनुराग। कहे सदा ही पर्वणी, नर तंबाकू त्याग ।।10
पद्मा साहू पर्वणी,
तम्बाकू सेवन छोड़ो
तम्बाकू सेवन में, क्यूँ इतनें मग्न हुए? हुआ नशा से नाश, नाश से नग्न हुए. तम्बाकू सेवन ने छीना, ईश्वर आशीर्वाद. तम्बाकू सेवन से ही, जीवन हुआ बर्बाद. ऐसे बुरे नशे से, मुंह अपना मोड़ो. तम्बाकू सेवन छोड़ो, तम्बाकू सेवन छोड़ो.
तम्बाकू ने छीनीं जानें, इतने हम फिर हुए बिवस. तम्बाकू छोड़ो सब, है तम्बाकू निषेध दिवस. तम्बाकू ही भयंकर, मौत का जाल है. तम्बाकू सेवन छोड़ो, ये भयंकर काल है. ऐसे बुरे नशे से, मुंह अपना मोड़ो. तम्बाकू सेवन छोड़ो, तम्बाकू सेवन छोड़ो.
तम्बाकू से पुत्र गए, और किसी के गए पिता. तम्बाकू सेवन से, जवानी में जली चिता. नारियों अब तुम भी, तम्बाकू सेवन छोड़ दो. तम्बाकू सेवन इस धरा से, सिर सहित अब फोड़ दो. ऐसे बुरे नशे से, मुंह अपना मोड़ो. तम्बाकू सेवन छोड़ो, तम्बाकू सेवन छोड़ो.
कवि विशाल श्रीवास्तव
विनाशकारी तंबाकू
तंबाकू पान गुटका शराब , तन मन को करे पूरा खराब। रोगों से जूझते उम्र भर लोग, परिवार को करे पूरा बर्बाद।
खाने वाले कहते है , तंबाकू से आता बड़ा मजा। कैंसर जैसे घातक रोगों से घिरकर, मिलता भयंकर कड़ा सजा।
तंबाकू का नशा न जाने, निगल गया कितने घर बार। तन मन जीवन नष्ट करके, फूंक दिए घर -घर में आग।
तंबाकू गुटका खैनी, न जाने, कितने बीमारियों को बुलाता है? फेफड़े को जलाकर, न जाने, कितनो को सुलाता है?
तंबाकू के सेवन करने से , पूरा तन मन जलता है। जिंदगी तबाह करने के लिए, न जाने ये क्यों बनता है?
तंबाकू के सेवन करने में, कितने घर हो गए बर्बाद ? उत्पादक और विक्रेता,देखो कितने हो गए आबाद?
तंबाकू को मत खाना ,कभी तबाही को मत बुलाना कभी। नशा नाश का जड़ है यारो, परिवार को मत रुलाना कभी।
जीवन रूपी सागर में, नशा का जहर मत घोलो। अनुपम और अनमोल जीवन को, नशा के दलदल में मत धकेलो।
तंबाकू खाना छोडोगे, तो दांत भी मोती-सा चमकेंगे। तन मन स्वस्थ रहेगा हरपल, चेहरा भी चंदा-सा दमकेंगे।
तंबाकू,गुटका,सिगरेट,शराब से, न जाने, कितने परिवार जला है? तंबाकू सेवन से अब तक यारो, किसका हुआ भला है?
महदीप जंघेल
तंबाकू जीवन को घातक
तंबाकू जीवन को घातक, फिर क्यों लोग इसे अपनाएँ। कई तरह से इसका सेवन, करके अपनी तलब मिटाएँ।।
बीड़ी हों या सिगरेटों में,तंबाकू कितने पी जाते। जर्दा या खैनी को भी अब, बड़े चाव से लोग चबाते ।। पानों में भी तंबाकू को, कितने लोग यहाँ पर खाते। और मित्र बनकर कितनों को, वे हैं इसका स्वाद चखाते।।
मिलता जो आनन्द बने लत, तंबाकू को छोड़ न पाएँ । दुष्प्रभाव जब इसका होता, फिर तो जीवन भर पछताएँ।।
आज तीसरे नम्बर पर है, तंबाकू भारत में होती । इसीलिए तो खपत भी यहाँ, बहुत अधिक पीड़ा को बोती।। कितने घर परिवार बिलखते, दुनिया अपनों को ही खोती। जब इलाज को रहे न पैसा, आँसू गिरते बनकर मोती।।
तंबाकू ने आज बदल दीं, युवा वर्ग की यहां दिशाएँ। लड़के और लड़कियाँ दोनों, सिगरेटों का धुआँ उड़ाएँ।।
मुख, खाने की नलिका या फिर,श्वसन तंत्र में जो हो जाता। तंबाकू से जनित कैंसर, लोगों को फिर बहुत सताता।। पाचन तंत्र ऊपरी हिस्सा, भी इससे है क्षति को पाता। धूम्रपान से निकोटीन तो, हृदय रोग को खूब बढ़ाता ।।
तंबाकू के विक्रय पर अब, सरकारें प्रतिबन्ध लगाएँ। स्वस्थ रहें सब यही कामना, खुशहाली जीवन में लाएँ।।
उपमेन्द्र सक्सेना एड.
अब तम्बाकू न खाएंगे
पैकेट पर लिखा चेतावनी, लोगों ने पढ़ा| फिर भी खाया,और कैंसर रोग आगे बढ़ा |
क्यों तम्बाकू नहीं छोड़ते,क्यों रोगों से नहीं डरतेॽ
नासमझ हैं जो खरीदते ,जानते हुए भी इसे लेते|
लोग तम्बाकू खाते, मानो रोगों को दावत देते| रुपयों को बर्बादी से, अपनों के परेशानी बढ़ाते |
सरकार को दोष देंगे, क्यों तम्बाकू बैन नहीं करते| खुद छोड़कर इसे, क्यों तम्बाकू बैन नहीं समझते|
तम्बाकू न खायेंगे तो, दांत भी साफ चमकेगा| रुपयों की बचत होगी ,अच्छे काम में लगेगा|
मेरी कविता का ये अनुरोध , इस तम्बाकू का विरोध। अब तम्बाकू न खाएंगे, बस रोगों से निजात पाएंगे|
-शिवांशी यादव
तम्बाकू रहित जीवन
क्या ये वही मानव है? जो वन्यप्राणी से बेहतर है। जिसे ज्ञात है अपनी, सही आहार-विहार ? जो जानता है अपना नफा या नुकसान । मेधस तंत्र सुविकसित है के बावजूद, है जो व्यसन के आदी। वही करेगा नित प्रतिदिन, समय-धन की बर्बादी ।। गुटखा सिगरेट और बीड़ी । यह सब हैं मौत के सीढ़ी । तंबाकू में है नशा जहर , जिसका सेहत पर बुरा असर। फेफड़ा, हृदय को घात करे और पैदा करे दमा, कैंसर। यह जान के भी, जो बनता है अनजान । उसे समझ लेना, आज का बिगड़ा इंसान। हो जाओ सावधान ! ये लत नहीं समझदारी । क्यों तुला है तबाह करने? तेरी बची जिन्दगी सारी। जानवर भी, तंबाकू को मुंह न लगाए। मानव इसे चबाकर देखो,झूठी शान दिखाये। ओ देश के प्रहरी ! तंबाकू रहित जीवन सेहत के लिए वरदान । आओ विरोध करें, तंबाकू सेवन का मिलजुल बनाएं देश महान।