Author: कविता बहार

  • कविता की पौष्टिकता –

    विश्व कविता दिवस प्रतिवर्ष २१ मार्च को मनाया जाता है। यूनेस्को ने इस दिन को विश्व कविता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा वर्ष 1999 में की थी जिसका उद्देश्य को कवियों और कविता की सृजनात्मक महिमा को सम्मान देने के लिए था।

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    कविता की पौष्टिकता – 19.04.21


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    खाना बनाना बड़ा कठिन काम होता है
    खाना बनाने के वक्त बहुत सारी बातों का ध्यान रखना पड़ता है एक साथ

    कितने चावल में कितना पानी डालना है
    कौन कौन से मसाले कब कब डालना है
    चूल्हे में मध्यम, कम या तेज़ आँच कब कब करना है
    कुकर में बज रहे सीटी का अर्थ कब क्या समझना है
    ऐसे ही बहुत सारे सवाल खड़े होते रहते हैं

    आप लगातार कोशिश करके इतना ठीकठाक खाना बना ही सकते हैं कि खुद खा सको

    सतर्कता न होने या लगन की कमी होने पर
    बर्तन के नीचे से कई कई बार भात चिपक जाता है
    कई कई बार जल जाती है सब्ज़ी या दाल

    किसी ख़ास ट्रेनिंग की मदद से
    आप ला सकते हैं अपने व्यजंनों में विविधता
    और बदल या बढ़ा सकते हैं अपने खाने का ज़ायका

    लाख हुनर होने के बावजूद
    अच्छा खाना बनाने के लिए
    ज़रूरी होता है नियमित अभ्यास

    अक़्सर खाने वालों में हंगामे खड़े हो जाते हैं
    खाने में नमक या मिर्च ज़रूरत से ज़्यादा होने पर

    मुझे लगता है जितना कठिन होता है
    रसोइये के लिए सुस्वादु और पौष्टिक खाना बनाना
    उससे कहीं ज़्यादा कठिन और जोख़िम भरा होता है
    कवि के लिए कविता लिखना

    कठिन होता है कविता में
    चुन चुनकर एक एक शब्दों को रखना
    अर्थों को भावनाओं की आँच पर पकाना
    पकी पुकाई कविता को बड़ी निष्ठा के साथ लोगों को परोसना
    और सबसे कठिन होता है कविता में कविता की पौष्टिकता को बनाए रखना।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • हम भी दीवाने और तुम भी दीवाने

    हम भी दीवाने और तुम भी दीवाने

    हम भी दीवाने और तुम भी दीवाने

    इश्क में हो गये हम दीवाने
    इश्क में हो गये हम वीराने
    इश्क में दौलत क्या है ?
    इसमें लुट गये सारे खजाने
    इश्क में हो गये हम दीवाने
    हम भी दीवाने और तुम भी दीवाने।।


    शीरीं भी मर गयी मर गया फराद भी
    लैला भी मर गई मर गया मजनू भी
    मर जायें इश्क में हम भी
    लिख जाये हम भी अपने फसाने
    हम भी दीवाने और तुम भी दीवाने
    हम भी वीराने ओ तुम भी वीराने।।


    अगर एक आशिक को उसका
    महबूब मिल जाए तो
    इस जहाँ को एक और ताज मिल जाये
    लगते हैं अब इश्क के किस्से पुराने
    हम भी दीवाने ओ तुम दीवाने
    इश्क में हो गये हम दीवाने।

    -शादाब अली ‘हादी’

  • जिंदगी में बहुत काम आती है यह छत

    जिंदगी में बहुत काम आती है यह छत

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    नीचे होता हूँ तो साया बनके सुलाती है
    यह छत।
    ऊपर होता हूँ तो खुले आसमां की सैर
    कराती है यह छत।
    नीचे होता हूँ तो छाँव बन जाती है यह छत
    ऊपर चढ़ जाऊँ तो जमीं का एहसास
    दिलाती है यह छत।
    कद्र करता हूँ इसकी यह सोचकर
    कि हर किसी को नहीं मिलती है यह छत
    कभी कच्ची कभी पक्की कभी घास फूस
    की बन जाती है ये छत।
    हमें आराम दिलाने के लिये क्या नहीं
    करती है यह छत।
    सर्दी गर्मी बरसात सब सहती है यह छत
    कुछ इंसान भी इन छतों का काम करते हैं
    हमारे लिये हर मुश्किल आसान करते हैं
    उन आलाज़र्फ शख्सों कि याद दिलाती है
    यह छत
    जिंदगी में बहुत काम आती है यह छत।

    -शादाब अली ‘हादी’

  • नवीन कल्पना करो- गोपालसिंह नेपाली

    नवीन कल्पना करो

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह


    तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो। तुम कल्पना करो।


    अब घिस गईं समाज की तमाम नीतियाँ,
    अब घिस गईं मनुष्य की अतीत रीतियाँ,
    हैं दे रहीं चुनौतियाँ तुम्हें कुरीतियाँ,
    निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए-
    तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो। तुम कल्पना करो

    जंजीर टूटती कभी न अश्रु-धार से,
    दुख-दर्द दूर भागते नहीं दुलार से,
    हटती न दासता पुकार से, गुहार से,
    इस गंग-तीर बैठ आज राष्ट्र शक्ति की-
    तुम कामना करो, किशोर, कामना करो। तुम कल्पना करो

    जो तुम गए, स्वदेश की जवानियाँ गई,
    चित्तौर के प्रताप की कहानियाँ गईं,
    आजाद देश रक्त की रवानियाँ गईं,
    अब सूर्य-चन्द्र की समृद्धि ऋषि-सिद्धि की-
    तुम याचना करो, दरिद्र, याचना करो। तुम याचना करो…..


    जिसकी तरंग लोल हैं अशान्त सिन्धु वह,
    जो काटता घटा प्रगाढ़ वक्र ! इन्दु वह,
    जो मापता समग्र सृष्टि दृष्टि-बिन्दु वह,
    वह है मनुष्य, जो स्वदेश की व्यथा हरे,
    तुम यातना हरो, मनुष्य, यातना हरो। तुम यातना हरो

    तुम प्रार्थना किए चले, नहीं दिशा हिली,
    तुम साधना किए चले, नहीं निशा हिली,
    इस आर्त दीन देश की न दुर्दशा हिली,
    अब अश्रु दान छोड़ आज शीश-दान से –
    तुम अर्चना करो, अमोघ अर्चना करो। तुम अर्चना करो


    आकाश है स्वतन्त्र है स्वतन्त्र मेखला,
    यह शृंग भी स्वतन्त्र ही खड़ा बना ढला,
    है जल प्रपात काटता सदैव श्रृंखला,
    आनन्द, शोक, जन्म और मृत्यु के लिए-
    तुम योजना करो, स्वतन्त्र योजना करो। तुम योजना करो….

    – गोपालसिंह नेपाली

  • सारवती छंद -विरह वेदना (बासुदेव अग्रवाल)

    सारवती छंद -विरह वेदना

    छंद
    छंद

    वो मनभावन प्रीत लगा।
    छोड़ चला मन भाव जगा।।
    आवन की सजना धुन में।
    धीर रखी अबलौं मन में।।

    खावन दौड़त रात महा।
    आग जले नहिं जाय सहा।।
    पावन सावन बीत रहा।
    अंतस हे सखि जाय दहा।।

    मोर चकोर मचावत है।
    शोर अकारण खावत है।।
    बाग-छटा नहिं भावत है।
    जी अब और जलावत है।।

    ये बरखा भड़कावत है।
    जो विरहाग्नि बढ़ावत है।।
    गीत नहीं मन गावत है।
    सावन भी न सुहावत है।।
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    लक्षण छंद:-

    “भाभभगा” जब वर्ण सजे।
    ‘सारवती’ तब छंद लजे।।

    “भाभभगा” = भगण भगण भगण + गुरु
    211 211 211 2,
    चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत
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    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया