Author: कविता बहार

  • जिंदगी- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    प्रेरणा दायक कविता

    जिंदगी- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    जिंदगी
    अजनबी सी
    असह्य सी
    तिरस्कृत सी
    विफलता के
    दौर से गुजरती

    जिंदगी
    अपनी मौलिकता से
    पीछे छूटती
    निंदा का
    शिकार होती
    आज
    उस मुकाम पर
    आ स्थिर हुई है

    जहां
    भावुकता ,
    मर्यादा ,
    तपस्या
    सब कुछ
    शापित सा
    अनुभव होता है
    जिंदगी के
    दैनिक प्रपंचों
    ने इसे
    दयनीय मुकाम की
    सौगात दी है
    जिंदगी आज
    कुपात्र की मानिंद
    प्रतीत होती है
    जिंदगी
    मूल्यहीन सी
    हास्यास्पद सी
    अपनी ही
    व्यथा पर
    स्वयं को
    असहज सी पा रही है
    अनुकूल कुछ भी नहीं
    जीवन के
    प्रतिकूल चल रही हवायें
    मानसिकता में
    बदलाव
    आस्तिक
    होने का दंभ
    भरती जिंदगी
    नीरसता
    धारण किये
    तीव्र गति से
    नश्वरता की ओर
    अग्रसर होती
    जिंदगी का
    स्वयं के ऊपर
    अतिक्रमण
    किया जाना
    स्वयं को दुराशीष देना

    अवसाद में जीना
    पल – पल टूटना
    क्षण – क्षण बिखरना
    जिंदगी के
    रोयें – रोयें
    का भभकना

    जिंदगी की
    स्वयं के प्रति
    छटपटाहट

    स्वयं के लिए चीखना
    स्वयं को दुत्कारना
    जिंदगी का
    खुद के पीछे
    भागना

    इच्छा तो
    बहुत थी
    काश
    जिंदगी मेरी
    किसी के
    एकाकीपन
    में कुछ
    रंग भर पाती

    काश
    जिंदगी मेरी दूसरों के
    दुखों के समंदर
    को कुछ कम कर पाती
    लज्जा न महसूस करती
    मेरी जिंदगी
    मुझ पर
    अपमानित ना महसूस करती
    जिंदगी उलझाव
    या भटकाव
    का नाम न होती
    जिंदगी छटपटाहट
    का नाम ना होती
    जगमगाहट का पयाम होती
    जिंदगी
    आशीर्वादों का समंदर होती
    जिंदगी दुत्कार ना होती
    जिंदगी आनंद
    का पर्याय होती
    तलाश जिंदगी की
    केवल अर्थपूर्ण
    जिंदगी होती
    केवल अर्थपूर्ण
    जिंदगी होती

  • प्लेटफार्म – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    प्लेटफार्म – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    मै अपनी
    यात्रा के एक चरण
    में
    ट्रेन में बैठा
    अपनी मंजिल की ओर
    बढ़ रहा हूँ
    बीच यात्रा में
    एक प्लेटफार्म
    का दृश्य देख
    कुछ लिखने की उत्सुकता
    मन में जागृत हुई
    प्लेटफार्म शब्द
    हमारे मन में
    अनके विचारों
    को जन्म
    देता है
    कुछ इसे
    यात्रा के बीच
    एक पड़ाव
    मानते हैं
    कुछ इसे
    अल्पकाल के लिए
    एक सराय
    मानते हैं
    कुछ इसे तफरी के लिए
    सबसे उपयुक्त
    जगह मानते हैं
    तो इसे कुछ
    लोग समय
    पास करने का सर्वश्रेष्ठ
    साधन मानते हैं
    कुछ इसे मंजिल की
    यात्रा का एक पड़ाव मानते हैं
    पर मै इसे
    कुछ दूसरे
    नज़रिए से देखता हूँ
    प्लेटफार्म शब्द
    मेरे लिए
    विभिन्न संस्कृतियों ,
    संस्कारों, विचारों
    के मिलन की
    एक ऐसी अनुपम कृति है
    जहां बिखराव नहीं दिखाई देता
    यह एक जुड़ाव का केंद्र है
    यह भिन्न – भिन्न
    समुदायों रीतिरिवाजों
    खान-पान व व्यवहारों
    को एक दूसरे से
    जोड़ने का ऐसा माध्यम है
    जो भारत जैसे देश में
    अनेकता में एकता को
    चरितार्थ करता है
    प्लेटफार्म पर
    कुछ लोग अनमने से
    कुछ अपनी ट्रेन का
    इंतज़ार करते
    कुछ एक स्वादिष्ट
    व्यंजनों में व्यस्त
    कुछ बोझ के मारे
    कुली की बात टोहते
    कहीं चाय-चाय की आवाज
    तो कहीं पकोडे वाले का
    अलग सा अंदाज़
    बच्चों को अपनी और आकर्षित
    करते खिलोने वाले
    कहीं रिश्तेदारों
    को लेने आये लोग
    इस बात से परेशान हैं
    कि ट्रेन लेट क्यों हैं
    तो कहीं
    गरीब बच्चे
    लोगों को
    करतब दिखाते
    अपने पेट
    की भूख के
    जुगाड़ में
    तो कोई
    पान की पीक को
    कहीं किनारे
    धीरे से
    पिचकारी मार
    अपने मुख की
    कुंठा को शांत करता
    तो किसी
    को अपनी
    ट्रेन चूक जाने
    का गम
    ये सारे दृश्य
    एक प्लेटफार्म
    की गरिमा को
    और विस्तार देते हैं
    ये सारे चरित्र
    प्लेटफार्म को
    गरिमामय स्वरूप
    प्रदान करते हैं
    अनाउंससमेंट होते ही
    अपने – अपने सामान
    के साथ तैयार लोग
    ट्रेन में बैठ
    प्रस्थान करते दिख रहे हैं

    इसी बीच
    मेरी भी ट्रेन की
    घंटी सुनाई दी
    और मै
    अपनी आगे की यात्रा
    की ओर
    बढ़ चला
    इसी उम्मीद से
    कि
    सभी दूसरे
    यात्रीगण
    भी अपनी – अपनी मंजिल
    तक सुरक्षित पहुचें

  • भाग्य- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    भाग्य- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    भाग्य पर भरोसा न कर
    कर्म से परे न हट
    कर्म धरा पर उतर
    भाग्य को मुटठी में कर

    भाग्य पर भरोसा न कर

    सफलता मिलेगी तुझे
    यह सोच बढ़ा कदम
    कर्महीन बन धरा पर
    भाग्य पर संकट न बन

    भाग्य पर भरोसा न कर

    मंजिलें आसां नहीं पर
    चाहतीं परिश्रम अथक
    रास्ते कठिन पर
    चाहते अनगिनत परीक्षण

    भाग्य पर भरोसा न कर

    कल का भरोसा न कर
    वर्तमान परिवर्तित कर
    जीवन संवार ले
    भाग्य को निखार दे

    भाग्य पर भरोसा न कर

    रुकना तेरी नियति नहीं
    आगे बढ़, बढ़ते चल
    छू ले तू आसमां , फिर
    भाग्य पर इतरा के चल

    भाग्य पर भरोसा न कर

  • प्यार की बोली का, प्यार से जवाब दो- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    प्रेम

    प्यार की बोली का

    प्यार की बोली का
    प्यार से जवाब दो
    प्यार के पालने में
    जिन्दगी गुज़ार दो

    प्यार एक एहसास है
    घृणा को त्याग दो
    प्यार की बोली का
    प्यार से जवाब दो

    प्यार से बोलो सभी से
    प्यार से मिलो सभी से
    प्यार एक उल्लास है
    यह नहीं उपहास है

    भावना प्यार की
    प्यार से जगा के देख
    अश्रुपूर्ण नेत्रों में
    आस तो जगा के देख

    दिल में किसी के प्यार की
    ज्योति तो जगा के देख
    प्यार मंद – मंद पवन
    यह नहीं आघात है

    प्यार एक चाहत है
    प्यार विश्वास है
    प्यार पतवार है
    प्यार अलंकार है

    प्यार को पतवार बना
    जीवन संवार लो
    प्यार की बोली का
    प्यार से जवाब दो

  • कठपुतली मात्र हैं हम

    कठपुतली मात्र हैं हम

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    कुछ भ्रांतियां ऐसी जो, हास्यास्पदसी लगती हैं
    कहावतें भी जीवन का, प्रतिनिधित्व करती हैं।।
    ज़मीं पे गिरी मिठाई को, उठाकर नहीं खाना है,
    वो बोले मिट्टी की काया, मिट्टी में मिल जाना है।।

    बंदे खाली हाथ आए थे खाली हाथ ही जाएंगे,
    फिर बेईमानी की कमाई, साथ कैसे ले जाएंगे।।
    रात दिन दौलत, कमाने में ही जीवन बिताते हैं,
    वो मेहनत की कमाई झूठी मोह माया बताते हैं।।

    पति-पत्नी का जोड़ा, जन्म-जन्मांतर बताते हैं,
    फिर क्यों आये दिन, तलाक़ के किस्से आते हैं।।
    सुना है बुराई का घड़ा एक न एकदिन फूटता है,
    फिर बुरे कर्म वालों का, भ्रम क्यों नहीं टूटता है।।

    ऊपर वाले के हाथों की कठपुतली मात्र हैं हम,
    फिर क्यों लोग, स्वयं-भू बनने का भरते हैं दम।।
    उसने भू-मण्डल, मोहक कृतियों से सजाया है,
    फिर क्यों उसके अस्तित्व पर सवाल उठाया है।।

    राकेश सक्सेना, बून्दी, राजस्थान
    9928305806