संस्कारों पर कविता
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यूँ कोई होंश नहीं खोता।
जन्म जात बातें जन सीखे,
वस्त्र कुल्हाड़ी से कब धोता।
संस्कृति अपनी गौरवशाली,
संस्कारों की करते खेती।
क्यों हम उनकी नकल उतारें,
जिनकी संस्कृति अभी पिछेती।
जब जब अपने फसल पकी थी,
पश्चिम रहा खेत ही बोता।
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यूँ कोई होंश नही खोता।
देश हमारा जग कल्याणी,
विश्व समाजी भाव हमारे।
वसुधा है परिवार सरीखी,
मानवता हित भाव उचारे।
दूर देश पहुँचे संदेशे,
धर्म गंग जन मारे गोता।
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यूँ कोई होंश नही खोता।
मातृभूमि माता सम मानित,
शरणागत हित दर खोले।
जब जब विपदा भू मानव पर,
तांडव कर शिव बम बम बोले।
गाय मात सम मानी हमने,
राम कृष्ण हरि कहता तोता।
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यूँ कोई होंश नही खोता।
जगत गुरू पहचान हमारी,
कनक विहग सम्मान रहा।
पश्चिम की आँधी में साथी,
क्यूँ तेरा मन बिन नीर बहा।
स्वर्ग तुल्य भू,गंगा हिमगिरि,
मन के पाप व्यर्थ क्यूँ ढोता।
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यूँ कोई होंश नही खोता।
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✍©
बाबू लाल शर्मा बौहरा
सिकंदरा,दौसा, राजस्थान
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