Author: कविता बहार

  • अब नहीं रुकूंगी पर कविता

    अब नहीं रुकूंगी पर कविता

    अब नहीं रुकूंगी,
    नित आगे बढूंगी
    मैंने खोल दिए हैं ,
    पावों की अनचाहे बेड़ियां।
    जो मुझसे टकराए ,
    मैं धूल चटाऊंगी
    हाथों में डालूंगी ,
    उसके अब हथकड़ियां।।
    (१)
    अब धुल नहीं मैं ,
    ना चरणों की दासी।
    अब तो शूल बनूंगी
    अन्याय से डरूँगी नहीं जरा सी।
    क्रांति की ज्वाला हूँ मैं,
    समझ ना रंगीनी फुलझड़ियाँ ।।
    मैंने खोल दिए हैं ,
    पावों की अनचाहे बेड़ियां……
    ……..
    अब नहीं रुकूंगी,
    नित आगे बढूंगी ।।
    (२)
    दूर रही इतने दिनों तक,
    अपने वजूद की सदा तलाश थी ।
    तेरे फैसले ,विचार मुझ पर थोपे
    कभी ना जाना, मुझे क्या प्यास थी ?
    अब मौका मिला, बंधन मुक्ति का
    ख्वाहिश नहीं अब मोती की लड़ियां ।।
    मैंने खोल दिए हैं ,
    पावों की अनचाहे बेड़ियां…..
    ……….
    अब नहीं रुकूंगी,
    नित आगे बढूंगी ।।
    (३)
    घर में सजी रही वस्तु बन,
    सपनों का गला घोंटा चारदीवारी  में ।
    पीड़ित हो सामाजिक सरोकार से ,
    सती हो गई सिर्फ घरेलू जिम्मेदारी में ।
    क्या पहचान नहीं उन्मुक्त गगन में?
    किस बात में कम हैं हम लड़कियां?
    मैंने खोल दिए हैं ,
    पावों की अनचाहे बेड़ियां……
    ……….
    अब नहीं रुकूंगी,
    नित आगे बढूंगी ।।
    ✍मनीभाई”नवरत्न”

  • आजाद देश की दशा पर कविता

    आजाद देश की दशा पर कविता

    भाई भाई में देखो कितनी लड़ाई है
    हर चौराहे पर बैठा देखो कसाई है
    पर्दे में आज भी रहती है बहू बेटियां
    कहते हैं लोग हमारा देश आजाद है।

    बेटियों के घर पर बेटा घर जमाई हैं
    न जाने लोगों ने कैसी रीत बनाई है
    रस्मो रिवाज में बांधकर बेटियों को
    कहते है लोग हमारा देश आजाद है।

    गद्दारो की जगह में होती सदा बड़ाई है
    गली गली जिस्मो के खातिर लड़ाई है
    हवशी दरिंदों के कब्जे में पड़ी बेटियां
    कहते हैं लोग हमारा देश आजाद है।

    क्रान्ति सीतापुर सरगुजा छग

  • स्वदेशी पर कविता

    स्वदेशी पर कविता

    स्वदेशी पर कविता

    mera bharat mahan

    इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
    हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।

    वही खून फिर से दौड़े जो,भगतसिंह में था,
    नहीं देश से बढ़कर दूजा, भाव हृदय में था,
    प्रबल भावना देशभक्ति की,नेताजी जैसी,
    इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
    हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।

    वही रूप सौंदर्य वही हो,सोच वही जागे,
    प्राणों से प्यारी भारत की,धरती ही लागे,
    रानी लक्ष्मी रानी दुर्गा सुंदर थी कैसी,
    इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
    हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।

    गाँधीजी की राह अहिंसा,खादी पहनावा,
    सच्चाई पे चलकर छोड़ा,झूठा बहकावा,
    आने वाला कल सँवरे बस,डगर चुनी ऐसी,
    इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
    हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।

    वीर शिवाजी अरु प्रताप सा,बल छुप गया कहाँ,
    आओ जिनकी संतानें थी,शेर समान यहाँ,
    आँख उठाए जो भारत पर,ऐसी की तैसी,
    इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी
    हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।

    #स्वरचित
    *डॉ.(मानद) शुचिता अग्रवाल ‘शुचिसंदीप*

    (विधान – 26 मात्रा, 16,10 पर यति, अंत में गुरु l कुल चार चरण, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत l)

  • देशप्रेम पर कविता-कन्हैया साहू अमित

    देशप्रेम पर कविता-कन्हैया साहू अमित

    देशप्रेम पर कविता

    mera bharat mahan

    देशप्रेम रग-रग बहे, भारत की जयकार कर।
    रहो जहाँ में भी कहीं, देशभक्ति व्यवहार कर।

    मातृभूमि मिट्टी नहीं, जन्मभूमि गृहग्राम यह।
    स्वर्ग लोक से भी बड़ा, परम पुनित निजधाम यह।
    जन्म लिया सौभाग्य से, अंतिम तन संस्कार कर।-1
    रहो जहाँ में भी कहीं, देशभक्ति व्यवहार कर।

    वीरभूमि पैदा हुआ, निर्भयता पहचान है।
    धरती निजहित त्याग की, परंपरा बलिदान है।
    देशराग रग-रग बहे, बस स्वदेश सत्कार कर।-2
    रहो जहाँ में भी कहीं, देशभक्ति व्यवहार कर।

    साँसें लेते हैं यहाँ, कर्म भेद फिर क्यों यहाँ,
    खाते पीते हैं यहाँ, थाल छेद पर क्यों यहाँ।
    देशप्रेम उर में नहीं, फिर उसको धिक्कार कर।
    बेच दिया ईमान जो उनको तो दुत्कार कर।-3

    रहो जहाँ में भी कहीं, देशभक्ति व्यवहार कर।
    देशप्रेम रग-रग बहे, भारत की जयकार कर।

    कन्हैया साहू ‘अमित’
    भाटापारा छत्तीसगढ़

  • प्रेम उत्तम मार्ग है पर कविता

    प्रेम उत्तम मार्ग है पर कविता

    अन्नय प्रेम है तुझसे री
    तेरे स्वर लहरी की मधुर तान।
    तुम प्रेम की अविरल धारा हो
    मुख पे तेरी है मिठी मुस्कान ।
    मेरे मन में बसी है तेरी छवि
    तुम्हें देख के मेरा होय विहान।
    मैं व्यथित, विकल हूँ तेरे लिए
    हे प्रिय तुम्हीं हो मेरे प्राण ।
    शीतल सुरभित मंद पवन भी
    देख-देख तुम्हें शरमाई ।
    पिया मिलन की आस में फिर
    कहीं दूर पुकारे शहनाई ।।

    दर्पण सा तेरे मुखड़े में
    मैं खोकर हो गया विभोर ।
    तेरी आँखो की इन गहराई में
    सागर की भाँति उठ रही हिलोर।
    खुद को भूला तुझे देख के री
    हे मृगनयनी तू हो चितचोर ।
    रश्मियाँ सी जब लगी संवरने
    तब जाकर कहीं हुआ अंजोर ।
    तेरे प्यार की खुशबू ऐसे बहे
    जैसे बहती हो पुरबाई ।।
    पिया मिलन की आस में फिर
    कहीं दूर पुकारे शहनाई ।।

    उपवन की सारी कलियाँ भी
    तेरे अंग-अंग को रहीं सँवार।
    अम्बर में तेरी एक छवि लिए
    कब से मेरी आँखे रही निहार।
    बादल बनकर अब बरसो री
    मेरा मन कब से तुम्हें रहा पुकार।
    आहट सुनकर विचलित होता
    कब कहोगी तुम हो प्राण आधार।
    तेरे आने की दे गई निमंत्रण
    उपर से आई एक जुन्हाई ।
    पिया मिलन की आस में फिर
    कहीं दूर पुकारे शहनाई ।।

    ?सर्वाधिकार सुरक्षित?

    बाँके बिहारी बरबीगहीया

    ✒मेरी प्यारी मेरी शहनाई✒