आत्महंता का अधिकार
जहाँ सत्य भाषण से पड़ जाता संकट में जीवन।
वहाँ कठिन है कह पाना कवि की कविता का दर्शन।।
गुरु सत्ता पे शासन की सत्ता जब होती हावी।
वहाँ जीत जाता अधर्म,धर्म की हानि अवश्यंभावी।।
जो दरिद्र है,वही द्रोण की समझ सकेगा पीड़ा।
मजबूरी पर क्रूर नियति की व्यंग्यबाण की क्रीड़ा।।
राजा हो धृतराष्ट्र,चेतना गांधारी बन जाए।
एकलव्य गुरु के चरणों में ज्ञान कहाँ से पाए।।
राजकोप से जान बचाने,बनना पड़ा भिखारी।
माँग अँगूठा दान,कलंकित होना था लाचारी।।
वेद व्यास की परम्परा के वाहक कवि कुछ बोलो।
धर्मयुद्ध में आज लेखनी के बंधन तो खोलो।।
बहुत लिखे तुम आदर्शों पर,अतुल कीर्ति की अर्जित।
आज न्याय की वेला में क्यों कर दी कलम विसर्जित।।
मधुर भाव,छंदों में तुमने चारण धर्म निभाया ।
अब शब्दों से आग उगलने का मौसम है आया।
दुःशासन से,द्रुपद-सुता का चीर हरण जारी है।
धर्मराज की धर्म-बुद्धि पर द्यूतकर्म भारी है।।
नहीं आत्महंता होता,गौरव का अधिकारी है ।
हे भारत की भव्य भारती!तू ही उपकारी है।।
तुमसे भी विश्वास उठेगा,यदि मानव के मन का।
कहाँ रहेगा ठौर-ठिकाना,जग में शांति-चमन का।।
—- R.R.Sahu
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद