Author: कविता बहार

  • आत्महंता का अधिकार -आर आर साहू

    आत्महंता का अधिकार

    जहाँ सत्य भाषण से पड़ जाता संकट में जीवन।
    वहाँ कठिन है कह पाना कवि की कविता का दर्शन।।

    गुरु सत्ता पे शासन की सत्ता जब होती हावी।
    वहाँ जीत जाता अधर्म,धर्म की हानि अवश्यंभावी।।

    जो दरिद्र है,वही द्रोण की समझ सकेगा पीड़ा।
    मजबूरी पर क्रूर नियति की व्यंग्यबाण की क्रीड़ा।।

    राजा हो धृतराष्ट्र,चेतना गांधारी बन जाए।
    एकलव्य गुरु के चरणों में ज्ञान कहाँ से पाए।।

    राजकोप से जान बचाने,बनना पड़ा भिखारी।
    माँग अँगूठा दान,कलंकित होना था लाचारी।।

    वेद व्यास की परम्परा के वाहक कवि कुछ बोलो।
    धर्मयुद्ध में आज लेखनी के बंधन तो खोलो।।

    बहुत लिखे तुम आदर्शों पर,अतुल कीर्ति की अर्जित।
    आज न्याय की वेला में क्यों कर दी कलम विसर्जित।।

    मधुर भाव,छंदों में तुमने चारण धर्म निभाया ।
    अब शब्दों से आग उगलने का मौसम है आया।

    दुःशासन से,द्रुपद-सुता का चीर हरण जारी है।
    धर्मराज की धर्म-बुद्धि पर द्यूतकर्म भारी है।।

    नहीं आत्महंता होता,गौरव का अधिकारी है ।
     हे भारत की भव्य भारती!तू ही उपकारी है।।

    तुमसे भी विश्वास उठेगा,यदि मानव के मन का।
    कहाँ रहेगा ठौर-ठिकाना,जग में शांति-चमन का।।

    —- R.R.Sahu
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  • आर आर साहू-भावभरे दोहे

    भावभरे दोहे

    प्रकृति प्रदत्त शरीर में,नर-नारी का द्वैत।
    प्रेमावस्था में सदा,है अस्तित्व अद्वैत।।

    पावन व्रत करते नहीं,कभी किसी को बाध्य।
    व्रत में आराधक वही, और वही आराध्य ।।

    परम्पराएँ भी वहाँ,हो जाती निष्प्राण।
    जहाँ कैद बाजार में,हैं रिश्तों के प्राण।।

    एक हृदय से साँस ले, प्रियतम-प्रिया पवित्र।
    श्रद्धा से विश्वास का,दिव्य सुगंधित इत्र।।

    भाव सोच अवधारणा,होते शब्द प्रतीक।
    देश काल परिवेश ही,आशय देते ठीक।।

    परंपराओं के बिना,नहीं शब्द के अर्थ।
    मनमाने अभिप्राय से,सारी बातें व्यर्थ।।

    राम और रावण यहाँ,गुणावगुण उपमान।
    संस्कृति को द्योतित करें,बने नाम-प्रतिमान।।

    राम शब्द का अर्थ ही , माना सद्व्यहार।
    रावण अभिव्यंजित करे,कुत्सित दुर्व्यवहार।।

    करते तभी चुनाव भी,संतानों के नाम।
    रावण तो रखते नहीं,रख देते हैं राम।।

    केवल भौतिक तथ्य ही,होता ना इतिहास।
    सत्य शिव सौंदर्य का,हो ना अगर प्रकाश।।

    विनती मैं सबसे करूँ,लड़ें न लेकर नाम।
    ऐक्य और सद्भाव से,करें लोक हित काम।।

    जले न रावण या जले,जले बैर का भाव।
    भारत मां के प्रेम की,मिले सभी को छाँव।।

    नई सुबह की रोशनी,का नूतन आलोक।
    काल-पृष्ठ में लिख रहा,सूरज स्वर्णिम श्लोक।।

    पंछी पुलकित गा रहे,नव जीवन का छंद।
    फूलों में भरने लगा,मधुर गंध मकरंद।।

    जीवन पल-पल है नया,पल भर में प्राचीन।
    बनते-मिटते दृश्य हैं,बहुधा समयाधीन।।

    साथ समय के चल रहे,धर्मवीर हैं लोग।
    मोहग्रस्त ठहरे हुए,गत आगत का रोग।।

    मुस्कुराती है उषा, अधरों में है आराधना।
    सहज होने के लिए,लगती सुनहरी साधना ।।

    दिव्य दीपक सूर्य से होने लगी है आरती ।
    गा रही है गान मंगल,भव्य भारत-भारती।।

     जब तक बाकी दर्प है,तब तक झूठा प्यार।
    बस शब्दों का स्वांग है,अभिनय सा व्यवहार।।

    ताजमहल ही है नहीं,मात्र प्रेम-पहचान।
    शाहजहाँ क्यों भूलता,हम भी हैं इंसान।।

    प्रियतम मुझको गर्व है,तू सहता है धूप।
    चटक-मटक से दूर है,शिव सा तेरा रूप।।

    स्वेद-रक्त अपना बहा,सदा खिलाता बाग।

    जग का तू मजदूर है,मेरा अमर सुहाग।।

    R.R.SAHU.
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  • मानवता पर कविता -भुवन बिष्ट

          मानवता पर कविता

    पावन मानवता का संगम,
               हो नव आशाओं का संचार। 
    नई सोच व नई उमंग से, 
                मानवता की हो जयकार।। 

    प्रभु नित नित वंदन करूँ जयकार।।……  

    प्रेम भाव का दीप जले, 
                 हो हर मन में उजियारा। 
    सारे जग में अब बन जाये, 
                 अपना ही यह भारत प्यारा।। 
    जले ज्ञान का दीपक सदा, 
                  मिटे जगत से अंधकार।….

    प्रभु नित नित वंदन करूँ जयकार।।……  

    बँधे एकता सूत्र में हम सब, 
                ऐसा संगम हो मिले वरदान। 
    भारत भू की एकता जग में,
                 बन जाये सबकी पहचान।। 
    मिट जाये हर मन से अब, 
                 राग द्वेष का मैल सारा।
    किरणें फैले पावनता की,
                 हर आँगन खुशियों की धारा।। 
    अन्तः मन की जगे चेतना, 
                बहे मानवता की अब धार।।….

    प्रभु नित नित वंदन करूँ जयकार।।……  

    पावन मानवता का संगम,
               नव आशाओं का संचार। 
    नई सोच व नई उमंग से, 
                मानवता की हो जयकार।। ………

    प्रभु नित नित वंदन करूँ जयकार।।……  
                       ……….भुवन बिष्ट
                       रानीखेत जिला-अल्मोड़ा, (उत्तराखंड )
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  • मेरा जीवन बना गुल्ली डंडा की परिभाषा-बाँके बिहारी बरबीगहीया

    मेरा जीवन बना गुल्ली डंडा की परिभाषा

    सुबह सवेरे घर से भाग जाना 
    पेड़ की टहनी से गुल्ली डंडा बनाना 
    अमीरी -गरीबी ना छूत अछूत 
    सबके निश्छल हृदय मिल के रहना खाना 
    कितना सुख चैन था ना थी कोई निराशा 
    मेरा जीवन बना गुल्ली डंडा की परिभाषा ।।

    छोटी सी गुल्ली से घूची बनाना 
    गुल्ली डंडा के खेल में चूक जाना 
    टाँड़ लगाना चपलता दिखाना 
    दांव पर एक दुसरे से पदना पदाना 
    खेल के धुन में कोई भूखा कोई रह जाता प्यासा 
    मेरा जीवन बना गुल्ली डंडा की परिभाषा ।।

    बिना खर्चे का खेल था कितना प्यारा 
    ना भेद-भाव सब था अपना यारा 
    गुल्ली डंडा की दुनिया में खो जाते हम सब
    अपने बचपन का था एक गुली सहारा  
    ना पिटाने का डर ना हीं खाने की आशा 
    मेरा जीवन बना गुल्ली डंडा की परिभाषा ।।

    छोटी सी गुल्ली डंडे में दुनिया समाहित 
    आज भी खेलने को मन है लालायित 
    लौट जाये जो बचपन मिल जाये बिछड़े साथी 
    जी भर खेलूंगा यही है अभिलाषा 
    मेरा जीवन बना गुल्ली डंडा की परिभाषा ।।

    बचपन की वो मिठी- मिठी समृती 
    याद आने पर मैं आज भी मुस्कुराता 
    मेरा जीवन बना गुल्ली डंडा की परिभाषा ।।

    ✒बाँके बिहारी बरबीगहीया 

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  • न आंसू न आहें न कोई गिला है-नीतू ठाकुर

    न आंसू न आहें न कोई गिला है

    न आंसू ,न आहें,न कोई गिला है,
    लिखा भाग्य में जो वही तो मिला है,
    पुकारूँ किसे पूछती है हथेली,
    कभी जो दिया था उसी का सिला है।

    उजाड़ा गया बाग ऐसे हमारा,
    कभी जो बना था सभी का सहारा,
    सता के मुझे मुस्कुराए जमाना,
    कभी जो खिला ना वही तो खिला है।

    निगाहें कभी देखती हैं उसे तो
    यही सोचती हैं कभी पास आये,
    बसा के उसे चाहतों के जहाँ में,
     अकेले चला था मिला काफिला है।

    शिकारी बना घूमता था सयाना,
    बना आज कैसे अदा का निशाना,
    बँधी पैर बेड़ी गले सर्प माला,
    बड़ी बेबसी ये सदा वो हिला है।

    नीतू ठाकुर
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