भगत सिंह हों घर घर में

यह कविता मनुष्य के स्वार्थपरता को व्यक्त करते लिखी गई है

भगत सिंह हों घर घर में


( १६,१४ ताटंक छंद २२२)

भगत सिंह तो हों घर घर में,
निज सुत हो तो खामोशी।
शेखर,सुभाष ऊधम भी हो,
अपने हो तो खामोशी।

क्रांति स्वरों से धरा गुँजा दे,
नाम सुने निज खामोशी।
सरकारों की नींद उड़ा दे,
हित टकराए खामोशी।

संसद पर भी बम्म फोड़ दे,
नाम लिए सुत, खामोशी।
चाहे फाँसी फंदे झूले,
नाम लिए निज खामोशी।

देश धरा पर कुरबानी दे,
परिवारी हो, खामोशी।
आतंकी से लड़़ शहीद हो,
भ्रात हुए तो खामोशी।

अपराधी का खूं पी जाए,
जाति बंधु हो , खामोशी।
दुष्कर्मी का गला घोंट दें,
धर्म पंथ के , खामोशी।

चोर,डकैतों से भिड़ जाए,
बगले झाँके , खामोशी।
इन शीशपटल,कवि धंधों से,
घर घर छाई खामोशी।

संचालक के दौरे हो तब।
काव्य पटल पर खामोशी।
गलती पर छोटे भय भुगते,
बड़े करे फिर,खामोशी।

बहु की गलती , झगड़े भुगते,
बिटिया की हो , खामोशी।
सास बींनणी, घर के झगड़े,
बेटे के मन खामोशी।

भ्रष्टाचारी बात चले तो,
खुद के हित मे, खामोशी।
आरक्षण की चर्चा करते,
खुद के हित फिर खामोशी।

जाति धर्म के झगड़े होते,
सरकारो की, खामोशी।
खामोशी तो अवसरवादी,
अवसर आए खामोशी।
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बाबू लाल शर्मा, बौहरा, *विज्ञ*

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