धरती पर कविता/ डॉ विजय कुमार कन्नौजे

धरती पर कविता/ डॉ विजय कुमार कन्नौजे

JALATI DHARATI
JALATI DHARATI

जलती धरती तपन ज्वलन
क्रोधाग्नि सा ज्वाला।
नशा पान में चुर हो बनते पाखंडी है मतवाला।।

काट वृक्ष धरा किन्ह नगन
धरती जलती , तु हो मगन
वाह रे मानव,खो मानवता
क्या सृष्टि का है यही लगन।।

जरा सोचो,कुछ कर रहम
ना कीजिए प्रकृति दमन
तेरा प्राण बसा है वहीं
धरती पवन और गगन।।

कैसा मानव है तुम,जो करते
सृष्टि का दमन ।
प्रकृति पुरुष प्राण तुम्हारा
जरा कीजिए,कुछ तो शर्म।।

चांद सितारे सुर्य देव हैं
प्रकृति पुरुष प्रधान।
मानवता में रहिए ,सदा
तुम, विधि का‌ विधान।्

You might also like