शराब पीना आत्महत्या क्यों है? |भूलना चाहता हूँ कि मैं जी रहा हूँ- मनीभाई नवरत्न

यह अतुकांत हिंदी कविता “धीरे-धीरे मरना” शराब की लत से आत्मविनाश की दर्दभरी यात्रा को दर्शाती है। पढ़िए — कैसे हर पैग एक इंसान के सपनों और उम्मीदों को धीरे-धीरे खत्म करता जाता है।

भूलना चाहता हूँ कि मैं जी रहा हूँ।”

(अतुकांत कविता)

रात की खामोशी में
वह बोतल से बातें करता है,
जैसे किसी पुराने दोस्त से
जो उसे अब भी समझता हो।

पहला घूंट —
गले से उतरता है जैसे आग,
फिर धीरे-धीरे
वह आग ही उसकी आदत बन जाती है।

वह कहता है —
“मैं जीना नहीं छोड़ रहा,
बस थोड़ी देर के लिए भूलना चाहता हूँ
कि मैं जी रहा हूँ।”

हर पैग के साथ
उसकी आंखों से एक सपना गिरता है,
एक रिश्ता टूटता है,
एक उम्मीद राख बनती है।

घर के कोने में रखी तस्वीरें
धुंधली होती जाती हैं,
बच्चों की हंसी
अब उसे दर्द लगती है।

वह सोचता है —
“यह तो आत्महत्या नहीं,
बस ज़िन्दगी से थोड़ा विराम है।”
पर हर विराम
थोड़ा-थोड़ा अंत बनता चला जाता है।

उसका शरीर अब बोझ है,
चेहरा लाल है, आंखें खाली हैं,
मगर दिल में अभी भी कोई कोना कहता है —
“शायद कल कुछ बदल जाए।”

पर कल कभी नहीं आता,
क्योंकि हर रात
वह खुद को थोड़ा और मार देता है,
बिना चाकू, बिना फंदे —
बस शराब के बहाने।

लोग कहते हैं —
वह शराबी है,
मैं कहता हूँ —
वह धीमे ज़हर का कवि है,
जो अपने ही जीवन को
हर जाम में लिखता जा रहा है।

कभी-कभी मौत शोर नहीं करती,
वह बस एक बोतल खोलती है,
और कहती है —
“चलो, आज आखिरी पैग पिएँ।”

मनीभाई नवरत्न

संदेश:
शराब आत्महत्या नहीं लगती, पर यह जीवन की धीमी मृत्यु है —
जहाँ आत्मा रोज़ थोड़ा-थोड़ा जलती है,
और आदमी अपने ही अस्तित्व का अंत खुद लिखता है।