जंगल पर कविता

जंगल पर कविता

अब धीरे-धीरे सारा शहर
शहर से निकलकर घुसते जा रहा है जंगल में
आखिर उसे रोकेगा कौन साथी…?
शहर पूरे जंगल को निग़ल जाएगा एक दिन
आने वाली हमारी पीढ़ी हमसे ही पूछेगी
खो चुके उस जंगल का पता
हम क्या जवाब देंगे उन्हें
शहर की ओर इशारा करते हुए कहेंगे
यही तो है बाकी बचा तुम्हारे हिस्से का जंगल
हमारे जवाब से कतई संतुष्ट नहीं होगी हमारी भावी पीढ़ी
वह बार-बार पूछेगी जंगल के सारे सवाल
और हम हर बार एक झूठ को दबाने के लिए बोलेंगे कई-कई झूठ
आखिरकार मजबूर होकर करना ही पड़ेगा कड़वे सच पर यक़ीन उन्हें
यह जो शहर है बस यही तो है जंगल
हम ही तो है इस जंगल के जंगली जानवर
सभ्य शहर में रहते हुए भी कहलाएंगे जंगली
और सुसंस्कृत होते हुए भी कहलाएंगे जानवर
धनबल और बाहुबल से युक्त होंगे जंगल के राजा
बहुमंजिला गुफा होगा उसका निवास स्थान
शोषित-पीड़ित जनता ख़रगोश और हिरणों की तरह सतत सेवा में रहेंगे उपलब्ध
कुछ चतुर चालाक लोमड़ी भी होंगे जो राजा को अपनी चतुराई से करेंगे ख़ुश
और बेवकूफ जनता को फ़साएंगे अपनी चालाकियों से बार-बार
तब आने वाली हमारी नस्लें स्कूलों में पढ़ेंगी
जंगल का समानार्थी शब्द होता है शहर
वे इसके अभेद अर्थों से पूर्णतः सन्तुष्ट हो चुके होंगे
फिर आने वाली पीढी कभी नहीं पूछेगी जंगल का सवाल।

नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479

You might also like