जिंदगी में बहुत काम आती है यह छत
नीचे होता हूँ तो साया बनके सुलाती है
यह छत।
ऊपर होता हूँ तो खुले आसमां की सैर
कराती है यह छत।
नीचे होता हूँ तो छाँव बन जाती है यह छत
ऊपर चढ़ जाऊँ तो जमीं का एहसास
दिलाती है यह छत।
कद्र करता हूँ इसकी यह सोचकर
कि हर किसी को नहीं मिलती है यह छत
कभी कच्ची कभी पक्की कभी घास फूस
की बन जाती है ये छत।
हमें आराम दिलाने के लिये क्या नहीं
करती है यह छत।
सर्दी गर्मी बरसात सब सहती है यह छत
कुछ इंसान भी इन छतों का काम करते हैं
हमारे लिये हर मुश्किल आसान करते हैं
उन आलाज़र्फ शख्सों कि याद दिलाती है
यह छत
जिंदगी में बहुत काम आती है यह छत।
-शादाब अली ‘हादी’