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कभी कैंसर हो न किसी को

कभी कैंसर हो न किसी को

कभी कैंसर हो न किसी को, हम सब मिलकर इस पर सोचें
इसके पीछे जो कारण हैं, उनको पूरी तरह दबोचें।

जो होता है इससे पीड़ित, उसकी हम समझें लाचारी
बीत रही उसके घर पर जो, किस्मत भी रोती बेचारी
मानव -जीवन है क्षण भंगुर, फिर क्यों होती मारा-मारी
भ्रष्ट हुए जो लोग यहाँ पर, उनसे तो मानवता हारी

प्रतिरोधक क्षमता के बल पर, रोगों के लक्षण को नोचें
स्वस्थ रहें सब यही कामना, दीन- दु:खी के आँसू पोछें।

आज रेडियोधर्मी किरणें, बढ़ा रहीं प्रदूषण भारी
खान-पान में हुई मिलावट, इसीलिए होती बीमारी
अपनापन मिट गया यहाँ से, कुटिल नीति की है बलिहारी
मानव-मूल्य हुए अब धूमिल, सिसक रही कोई दुखियारी

गए लड़खड़ा जीवन के पग,मानो उनमें आयीं मोचें
मिल न सके जब साथ किसी का, पड़ें झेलना हाय बिलोचें।

पीते हैं गोमूत्र लोग कुछ, और पपीता भी हितकारी
तम्बाकू से बचें आज हम, इसमें छिपी बुराई सारी
आज सभी से बोलें मिलकर, ऐसी वाणी प्यारी-प्यारी
मिट जाए संताप सभी का,अपनी दुनिया हो अब न्यारी

नहीं बिताएँ समय व्यर्थ में, नहीं लड़ाएँ अपनी चोचें
बातों से जो करता घायल, उसको खुद भी लगी खरोचें।

रचनाकार-

उपमेन्द्र सक्सेना एड.
‘कुमुद- निवास’
बरेली (उ. प्र.)

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