किस राह – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

इस रचना में वर्तमान सामाजिक परिवेश में मानव की स्थिति को दर्शाया गया है वह स्वयं को असहाय सा महसूस कर रहा है |
किस राह - कविता - मौलिक रचना - अनिल कुमार गुप्ता "अंजुम"

किस राह – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

किस राह की बात करूं मैं
किस राह पर चलूँ मैं

किस पड़ाव पर रुकूं मैं
किस हाल में जियूं मैं

किससे अपनी व्यथा सुनाऊँ मैं
किस मार्ग पर चलूँ मैं

किन आदर्शों में पलूँ मैं
किस दिशा में चलूँ मैं

किस किसकी दशा पर रो पडूं मैं
सोचता हूँ
किन और किस से
जुड़े प्रश्नों का हल क्या हो

मानव जो मानवता के
झंडे तले रहना नहीं स्वीकार करता

मानव जो आदर्शों तले
अपना जीवन गुजारना
स्वीकार नहीं करता

मानव जो विलासितारूपी
दानव का मित्र बन गया है
मानव जो आतंक रुपी
दानव हो गया है

मानव जो रंग बदलती
दुनिया में खो गया है
मानव जो अमानवीय
संस्कारों में अपने लिए थोड़ी सी
छाँव ढूंढ रहा है

मानव जो कमण्डलु को
छोड़ बोतल का शिकार हो गया है
मानव जो
सौन्दर्य के चक्रव्यूह
में फंस व्यभिचारी हो गया है

मानव जो
अपनी आने वाली पीढ़ी
के लिए मृत्यु बीज बो रहा है

मानव जो
मानव के पहलू से खींचता
आदर्शों का पहनावा
संस्कारों की लकीर में
जगाता विश्वास
सत्मार्ग से कुमार्ग की ओर
करता प्रस्थित

भौतिक संसाधनों
के चक्र जाल में उलझता
मानव
मानव को नहीं भाता

मानव को मानव की मनुगति नहीं भाती
मानव को मानव का कुविचारों से सुविचारों
की ओर पलायन नहीं भाता

मानव को मानव की संस्कृति
संस्कारों में रूचि नहीं भाती
ऐसे मानव विहीन
समाज में किस पर विश्वास करूँ

किसे आदर्श कहूँ
किसे अपना कहूँ

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