मानव मन- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
मानव मन
एक पंछी की भाँति
उड़ता दूर गगन में
कभी ना ठहरे
एक डाल पर
रैन बसेरा
बदल – बदल कर
बढ़ता जीवन पथ
चाह उसे
उन्मुक्त गगन की
चंचल मन
स्थिरता ठुकराए
मन उसका
विस्तृत – विस्तृत
चाल भी है
उसकी मतवाली
संयमता , आदर्श , अनुशासन
सभी उसके मन पटल पर
अमित छाप छोड़ते
फिर भी
अस्तित्व की लड़ाई
कर्मभूमि से
पलायन न करने का
उसका स्वभाव
प्रेरित करता
लड़ो , जब तक जीवन है
संघर्ष करो
एक डाल पर बैठकर
अपने अस्तित्व को
यूं न रुलाओ
जियो और जियो
कुछ इस तरह
कि मरें तो
अफ़सोस न हो
और जियें कुछ
इस अंदाज़ में
कि बार – बार
हार कर
उठने का गम न हो
उन्मुक्त
इस तरह बढ़ें कि
राह के पत्थर
फूल बन बिछ जायें
उडें कुछ इस तरह
कि आसमान भी
साथ – साथ उड़ने को
मजबूर हो जाए
आगे बढ़ें
कुछ इस तरह
कि तूफान की रफ्तार
धीमी हो जाए
आंधियां थम जायें
मौजों को भी
राह बदलनी पड़ जाये
कुछ इस तरह
अपने मन को
दृढ़ इच्छा को
पतवार बना
रुकना नहीं है मुझको
मन की अभिलाषा
मन के अंतर्मन में जन्म लेती
स्वयं प्रेरणादायिनी विचारों की श्रृंखला
चीरकर हवाओं का सीना
बढ़ चलूँगा
कभी न रुकूंगा