मुंशी प्रेमचंद जी साहित्यकार थे ऐसे
हाँ मुंशी प्रेमचंद जी, साहित्यकार थे ऐसे।
मानवता की नस- नस को पहचान रहे हों जैसे।।
सन् अट्ठारह सौ अस्सी में अंतिम हुई जुलाई
तब जिला बनारस में ही लमही भी दिया सुनाई
आनंदी और अजायब जी ने थी खुशी मनाई
बेटे धनपत को पाया, सुग्गी ने पाया भाई
फिर माता और पिता जी बचपन में छूटे ऐसे।
बेटे धनपत से मानो सुख रूठ गए हों जैसे।।
उर्दू में थे ‘नवाब’ जी हिन्दी लेखन में आए
विधि का विधान था ऐसा यह प्रेमचंद कहलाए
लोगों ने उनको जाना दु:खियों के दु:ख सहलाए
घावों पर मरहम बनकर निर्धन लोगों को भाए
अपनाया था जीवन में शिवरानी जी को ऐसे।
जब मिलकर साथ रहें दो, सूनापन लगे न जैसे।।
बी.ए. तक शिक्षा पाई, अध्यापन को अपनाया
डिप्टी इंस्पेक्टर का पद शिक्षा विभाग में पाया
उसको भी छोड़ दिया फिर सम्पादन इनको भाया
तब पत्र-पत्रिकाओं में लेखन को ही पनपाया
फिर फिल्म कंपनी में भी, मुम्बई गए वे ऐसे।
जब दीपक बुझने को हो, तब चमक दिखाता जैसे।।
उन्नीस सौ छत्तीस में, अक्टूबर आठ आ गयी
क्यों हाय जलोदर जैसी बीमारी उन्हें खा गयी
अर्थी लमही से काशी मणिकर्णिका घाट पा गयी
थोड़े से लोग साथ थे, गुमनामी उन्हें भा गयी
बेटे श्रीपत, अमृत को, वे छोड़ गए तब ऐसे
बेटों से नाम चलेगा, दुनिया में जैसे- तैसे।।
रचनाकार –उपमेन्द्र सक्सेना एड.
‘कुमुद- निवास’
बरेली (उ. प्र.)
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