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नारी नारायणी

नारी नारायणी

स्त्री बहुत मजबूर खड़ी है ।
अपनों से पास या दूर खड़ी।।

अपने और अपनों के चलते।
हर रिश्ते की आग में जली।।

कभी द्रौपदी बन लूटी।।

अभी अहिल्या सी बुत बनी।

बदलते रिश्तो की खातिर स्त्री।

जल बिन मछली सी तड़पी भी।

कभी राधा सी बिरहन बनी।।

कभी मीरा सी जोगन बनी।।
रिश्तो के बदलाव में स्त्री।

आजीवन कसौटी पर तुली।

कभी न बना कर देवी पूजी गई।

केवल आवश्यकताओं पर ही पूछी गई।

उम्र मोम सी पिघल कर जली ।

निस दिन दीए की बाती सी घटी।

ताउम्र लपटों सी जलती रही स्त्री।

फिर भी नासूर बन के खटकती रही स्त्री।

अपने अस्तित्व की तलाश में दर-दर भटकती रही।

अपने ही परछाइयों से लड़ते झगड़ते कभी।

मनोंरोग का शिकार होती रही ।

डरती कभी सन्नाटे से,
कभी डरावने अनजाने चेहरों से।

अनजान अजनबी यों की भीड़ में

पर कोई अपना सा तलाशती रही।

सरिता सिंह गोरखपुर उत्तर प्रदेश

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